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सुविधा जुटाने के लक्ष्य से की जाती है। व्यवधान न हो तो यह क्रिया छहों दिशाओं का स्पर्श करती है, व्यवधान होने पर तीन - चार या पांच दिशाओं का इसी प्रकार नरक
आदि सभी दण्डकों के लिये ज्ञातव्य है। चोरी करना, दूसरों से करवाना तथा चोरी का समर्थन करना कर्म - बंध का कारण है।
(8) आध्यात्मिक प्रत्ययिक- यह एक प्रकार की मानसिक क्रिया है। मन में किसी प्रकार की दुर्भावना का प्रवेश ही पाप का कारण है। मानसिक लगाव और दुराव की प्रवृत्ति आध्यात्मिक क्रिया है। मनोविज्ञान की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। बाह्य निमित्तों, कारणों, परिस्थितियों से व्यक्ति दु:ख की अनुभूति करता है, यह सत्य है किन्तु कभी-कभी अकारण ही चिन्तित और शोकाकुल हो जाता है। इसका कारण बाहर नहीं, आन्तरिक है। आधुनिक शरीर विज्ञान की दृष्टि से इसका अन्त: स्रावी ग्रंथियों के स्रावों का असंतुलन है। कर्म शास्त्र की भाषा में असात वेदनीय कर्म का विपाकोदय है। इस क्रिया के प्रेरक तत्व हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ। इनकी उत्पत्ति आत्मा में होती है इसलिये इन्हें आध्यात्मिक क्रिया कहा जाता है।39
(9) मान प्रत्ययिक- जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य आदि के मद से अथवा अन्य किसी कारण से उन्मत्त होकर दूसरों को जो तुच्छ समझता है, निंदा करता है, अपने को उच्च और दूसरे को तिरस्कृत करता है। वह मान प्रत्ययिक क्रिया का सेवन करता है। चूर्णिकार ने अपमान जनक निम्नोक्त क्रियाओं को मानप्रत्यायिक के अन्तर्गत गिनाया है।40
हीलना - दूसरों को लज्जित करने की वृत्ति। निंदा - जाति, ऐश्वर्य आदि के निमित्त से दूसरों को मानसिक कष्ट देना। खिंसना - घृणा करना
परिभव
- किसी की अवज्ञा करना
गर्हा - जाति आदि को लेकर किसी को ऊंच - नीच बताना। अवमानना - तिरस्कार करना, बड़ों के आने पर सम्मान न करना, तुच्छ
आहार आदि देना, इत्यादि कार्यों से होने वाली क्रिया मान प्रत्ययिकी है।
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप