________________
व्यक्ति का उसे मारने का लक्ष्य नहीं, पर अनायास हिंसा हो जाती है। जैसे-शिकारी मृग का वध करने बाण चलाता है किन्तु वाण लक्ष्य-च्युत होकर मृग के बदले किसी दूसरे पक्षी या मनुष्य को लग जाता है। यह अकस्मात्- दण्ड है।
किसान धान्य की सुरक्षा के लिए अनावश्यक घास-फूस पर शस्त्र चलाता है। अचानक शस्त्र घास पर न लगकर धान्य के पौधों पर लग जाता है, जिससे पौधे नष्ट हो जाते हैं, यह अकस्मात्-दण्ड है। क्योंकि इसमें किसान का लक्ष्य पौधों को काटना नहीं था।
वाहन चालक दुर्घटना करना नहीं चाहता किन्तु शराब का नशा, निद्रा, आलस्य, कुहासा आदि कई ऐसे कारण हैं जो दुर्घटना में निमित्त बन जाते हैं। यह न तो अर्थ हिंसा है, न अनर्थ किन्तु आकस्मिक दण्ड है। इस प्रकार की हिंसा में प्रेरक तत्व आजीविका है। परिणाम है पाप कर्म का बंध।
__(5) दृष्टि विपर्यास दण्ड- अन्य प्राणी के भ्रम से अन्य प्राणी को दण्ड देना दृष्टि विपर्यास दण्ड है। मित्र को शत्रु समझकर और साहूकार को चोर समझ कर दंडित करना दृष्टि विपर्यास दण्ड है। इसमें प्रेरक तत्व है- दृष्टि की विपरीतता, भ्रांत चित्तता।
युद्ध के समय जो शत्रु नहीं है, उसे भी शत्रु समझ कर मार दिया जाता है। या निर्दोष को दोषी मानकर उसका प्राणवध कर देता है, यह दृष्टिविपर्यास दण्ड है। इसका परिणाम है- पाप कर्म का बंध और वैमनस्य ।30
मन, वचन और कर्म, त्रियोग साधना से ही अहिंसा का पूर्ण स्वरूप प्रकट होता है, फिर भी भगवान महावीर ने मानसिक अहिंसा को सर्वोपरि महत्व दिया है, क्योंकि हिंसा सर्व प्रथम मस्तिष्क में ही जन्म लेती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में लिखा गया है कि युद्ध पहले मस्तिष्क में लड़ा जाता है। तत्पश्चात् अनुकूल बाह्य निमित्त पाकर युद्ध भूमि में लड़ा जाता है। कायिक हिंसा के साथ मानसिक हिंसा का अविनाभावी सम्बन्ध है।
उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट है- “राग और द्वेष कर्म के बीज है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है।31(क)उसी प्रकार अंगुत्तर निकाय में कर्म को लोभज, दोषज, (द्वेषज) और मोह जनित माना है।31ख
कर्म-बंध की प्रक्रिया में मन की विशुद्धि-अविशुद्धि भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है।
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
39