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योग दर्शन के अनुसार कर्म का विपाक जाति, आयु और भोग के रूप में तीन होता है। जैसा की पूर्व में स्पष्ट किया गया- जाति पद मनुष्य, पशु, देव आदि योनियों का सूचक है। एक निश्चित अवधि तक प्राण या देह के संयोग की सूचना आयु पद से है। भोग शब्द सुख-दुःख रूप अनुभूति का अभिव्यंजक है। योग सम्मत तीनों पद एक दूसरे से इतने संबद्ध हैं कि एक के अभाव में दूसरे की कल्पना करना अशक्य है, कारण स्पष्ट है कि कृतकर्मों के फल-भोग के लिये आयु जरूरी है। आयु धारण में जन्म जरूरी है।
योग दर्शन सम्मत नियत-विपाकी कर्म जैन दर्शन सम्मत कर्म की दो अवस्थाओं, निकाचित और संक्रमण से तुलनीय हैं तथा अनियत-विपाकी कुछ कर्मों की तुलना प्रदेशोदय से संभव है।
योग दर्शन में क्लेश की चार अवस्थाओं का भी वर्णन है- प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार।38 उपाध्याय यशोविजयजी ने उनकी तुलना मोहनीय कर्म की सत्ता, उपशम, क्षयोपशम और उदय के साथ की है।39 ____ वैदिक दर्शन के अनुसार-जिस प्रकार गाय का बछड़ा हजारों गायों में भी अपनी मां को ढूंढ लेता है और उसका अनुगमन करता है उसी प्रकार पूर्वकृत कर्म कर्ता का अनुसरण करता हैं।40 ___ प्रश्नोपनिषद् के अनुसार उदान प्राण जीव को शुभ - कर्मों के कारण पुण्यलोक में ले जाते हैं। अशुभ कर्म पापलोक - नरक में और दोनों प्रकार के कर्म जीव को मनुष्य लोक में ले जाते हैं।41 श्वेताश्वतरोपनिषद् के अनुसार जो जीव शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है, वही उनको भोगने वाला है।42 बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार जो प्राणी जिस प्रकार का कर्म करता है, वह उसी प्रकार का बन जाता है। अच्छा कर्म करने वाला अच्छा तथा बुरा करने वाला बुरा बनता है।43 कर्मफल की समय-सीमा
एक व्यक्ति कर्म का बंध करता है, उस का फल भोगता है किन्तु कब भोगता है? इसी जन्म में या आगामी जन्म में ? इस प्रश्न के संदर्भ में चूर्णिकार ने कई विकल्प प्रस्तुत किये हैं
इस लोक में कर्म किया और इसी लोक में फल प्राप्त हो जाता है। इस लोक में कर्म किया, पर लोक में विपाक होता है।
क्रिया और पुनर्जन्म
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