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नहीं, वह अभव्य है। जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व इनका कर्मों के उदय - विलय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं। कर्मों का संचय किया जाता है, तोड़ा भी जाता है। जीवत्व आदि को न प्राप्त किया जा सकता है, न नष्ट किया जाता है। यह स्वाभाविक स्थिति है। औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक ये भी उसकी पर्यायें हैं। परिणमन एक शक्ति है, जो कर्म, उपाधि और स्वभाव के कारण इन भावों में अभिव्यक्त होती है।
यह अस्तित्व का घटक तत्त्व है। कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से निरपेक्ष आत्म - द्रव्य की परिणति को पारिणामिक भाव कहते है। चेतनत्व आदि भाव इसी प्रकार के हैं। पारिणामिक भाव द्रव्यमात्र में पाया जाता है। व्यापक अर्थ में किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक परिणमन ही पारिणामिक भाव है। पारिणामिक भाव के मुख्यत: दो प्रकार हैं- जीव पारिणामिक और अजीव पारिणामिका
प्रस्तुत प्रसंग जीव पारिणामिक भाव से संबंधित है। इस दृष्टि से जीव पारिणामिक भाव के तीन प्रकार हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। यद्यपि इन तीन के अलावा, अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणत्व, प्रदेशत्व, अरूपत्व, असर्वगतत्व आदि भी पारिणामिक भाव के ही भेद हैं। जीव पारिणामिक भाव के प्रकारों के अन्तर्गत उनका उल्लेख नहीं करने का कारण यह है कि अस्तित्व आदि साधारण पारिणामिक भाव है। वे अजीव में भी पाये जाते हैं, केवल जीव से ही इनका संबंध नहीं है। जीव का स्वरूप असाधारण भावों से ही बतलाया जा सकता है, इसलिये यहां उन सबका निर्देश नहीं किया गया है।
संसारी या मुक्त, कोई भी आत्मा हो, उसके सभी पर्याय इन पांच भावों में से किसी न किसी भाव में अवश्य होगें।
साधना के क्षेत्र में क्षयोपशम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान जीवन संचालन एवं निर्माण में क्षयोपशम का पूरा योगदान है। क्षयोपशम भाव व्यक्तित्व का निर्धारक तत्व है। व्यक्ति स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा क्षयोपशम को वृद्धिंगत कर सकता है।
उपशम अल्पकालिक है। क्षयोपशम दीर्घकालीन एवं सतत आत्मा को विकास की दशा में गतिशील बनाने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। संसार के सभी छोटे-बड़े प्राणियों में क्षयोपशम और उदय भाव निश्चित रूप से विद्यमान रहते हैं। निगोद जैसे अविकसित जीवों में भी ये पाये जाते हैं। नंदीसूत्र के अनुसार अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान जीव में नित्य विकसित रहता है। अन्यथा जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं रहता।61
क्रिया और कर्म-सिद्धांत
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