________________
संबंध कब से?
उपर्युक्त चर्चा के पश्चात् जिज्ञासा होती है कि आत्मा और कर्म का संबंध कब से है? इस संबंध का निश्चित समय कौन -सा है ? वस्तुतः काल 3 नंत है। अनंत की व्याख्या अनंत शब्दों के बिना संभव नहीं है। कुछ लोग कर्म-प्रवाह की आदि मानते हैं किन्तु यह तर्कसंगत नहीं है। अनेक प्रश्न इसके साथ उत्पन्न होते हैं। यदि कर्म की आदि है तो कर्म प्रवाह से पूर्व जीव शुद्ध था या अशुद्ध ? शुद्ध था तो कर्म से लिप्त क्यों हुआ? लिप्त होने का कारण क्या था ? शुद्ध आत्मा संसार में कैसे रहा ? यदि कहें कि कर्म आत्मा से पूर्व था तो प्रश्न होगा कि उसका कर्ता कौन था ? कर्ता के अभाव में कर्म का अस्तित्व टिक नहीं सकता। इन प्रश्नों के समाधान मुश्किल है अत: जैन दृष्टि से आत्मा और कर्म के संबंध को अपश्चानुपूर्वी स्वीकार करना ही तर्कसंगत प्रतीत होता है। मुर्गी और अंडे में प्रथम कौन? इस तरह के प्रश्नों की आदि का गणित किसी के पास नहीं। उसी प्रकार कर्म और आत्मा का संबंध भी अनादि मानना ही न्यायोचित है। कर्म के प्रकार
जीव अपनी भिन्न-भिन्न क्रियाओं के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म- परमाणुओं को ग्रहण करता है। आत्मा अनन्त ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति सम्पन्न है। उसके इन स्वाभाविक गुणों के अवारक, अवरोधक, विकारक तथा शुभाशुभ संयोजक कर्मों के आठ विभाग किये गये- 1. ज्ञानावरणीय कर्म 2. दर्शनावरणीय कर्म 3. वेदनीय कर्म 4. मोहनीय कर्म 5. आयुष्य कर्म 6. नाम कर्म 7. गोत्र कर्म 8. अन्तराय कर्म।
1. ज्ञानावरणीय कर्म- ज्ञान और विवेक शक्ति को आवृत करने वाला कर्म ज्ञानावरण है। जैसे बादल सूर्य के प्रकाश को आवृत्त कर देते हैं, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय
और दर्शनावरणीय आत्मा की ज्ञानात्मक या दर्शनात्मक चेतना शक्ति को प्रभावित करते हैं, उसे अवरूद्ध करते हैं। ज्ञानावरण के पांच प्रकार हैं। ___1.मति ज्ञानावरण- ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञानात्मक क्षमता को प्रभावित करने वाले कर्म पुद्गल।
2.श्रुत ज्ञानावरण- बौद्धिक तथा आगम - ज्ञानात्मक क्षमता को प्रभावित करने वाले कर्म पुद्गल।
3.अवधि ज्ञानावरण- सूक्ष्म मूर्त पदार्थों को जानने वाली अतीन्द्रिय ज्ञानात्मक क्षमता को प्रभावित करने वाले कर्म पुद्गल। 160
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया