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4. अविसंवादन योग- कथनी और करनी में विसंवादन न करना ।
अशुभ नाम कर्म के बंधन की हेतुभूत क्रियाएं और उसके परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाली प्रतिकूलताएं शुभ नाम कर्म की हेतुभूत क्रिया और परिणाम से प्राप्त होने बाली अनुकूलताएं।
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7. गोत्रकर्म
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जिस कर्म के परिणाम स्वरूप जीव की उत्पत्ति उच्च, नीच, पूज्य - अपूज्य गोत्र, कुल, वंश आदि में हो, वह गोत्र कर्म हैं। 94 आचार्य उमास्वाति के शब्दों में - उच्चगोत्र कर्म देश, गति, कुल, स्थान, मान, सत्कार, ऐश्वर्य इत्यादि विषयक उत्कर्ष का सम्पादक है। इसके विपरीत परिधि, नट, व्याध, दास आदि का निवर्तक हैं। ” इस कर्म को कुम्हार की उपमा दी जाती है। कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें लोग कलश मानकर अक्षत, चंदन आदि से अर्चा करते हैं। कुछ मदिरा आदि रखने में प्रयुक्त करते हैं। उसी प्रकार जीव जिस कर्म से श्लाघ्य एवं अश्लाघ्य कुल में उत्पन्न होता है, वह गोत्र कर्म है। ̈ गोत्र कर्म बंध की हेतुभूत क्रियाएं 8 प्रकार की है - 1. जाति 2. कुल 3. बल 4. रूप 5. तप 6. श्रुत (ज्ञान) 7. लाभ और 8. ऐश्वर्य। इस कर्म के दो प्रकार हैं- उच्चगोत्र, नीचगोत्र 971
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1. उच्च गोत्र कर्म - इस कर्म के उदय से प्राणी प्रतिष्ठित कुल में जन्म ग्रहण करता है।
2. नीच गोत्र कर्म - इस कर्म के परिणाम स्वरूप प्राणी का जन्म अप्रतिष्ठित एवं असंस्कारी कुल आदि में होता है। "उच्च एवं नीच गोत्र कर्म के आठआठ प्रकार हैं
जाति
कुल
ऐश्वर्य
उच्च
(गोत्रकर्म)
बल
रूप
लाभ
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया