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आगमों में जहां त्रिदण्ड का उल्लेख है उसका संबंध मन, वचन, काया की हिंसा जनक प्रवृत्ति से है। मन, वचन और शरीर की असत् प्रवृति से हिंसा होती है । अत: हिंसा के साधन के रूप में इन्हें दण्ड कहा गया है। इस आधार पर सूत्रकृतांग और आवश्यक में सर्वप्रथम पांच दण्डों का उल्लेख किया है। भगवती में वर्णित पच्चीस क्रियाओं में आरम्भिकी आदि पांच क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। 22 स्थानांग में वर्णित बहत्तर क्रियाओं का 23 तथा तत्त्वार्थ सूत्रमें वर्णित पच्चीस क्रियाओं का 24 ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी इन दो में समाहार हो जाता है।
प्रश्न होता है, कर्म-मुक्ति की चर्चा न्यायोचित है किन्तु कर्म-बंध की हेतु क्रियाओं के विवरण से क्या प्रयोजन ? चूर्णिकार ने प्रश्न को समाहित करते हुए लिखा- बंध की अवगति बिना मुक्ति की ओर प्रयास असंभव है। इसलिये जो भिक्षु चरण- करणविद् हो जाता है। कर्म - क्षय के लिये उत्थित है, उसे कर्म बंध और क्षय के स्थानों को अवश्य जानना चाहिये। 25 स्थानांग में पांच प्रकार के दण्डों का निर्देश है। 26
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साम्परायिक क्रिया पुण्य और पाप दोनों की हेतु है किन्तु प्रस्तुत अध्याय में यहां केवल पाप हेतुक साम्परायिक क्रिया का विस्तार किया जा रहा है। ईर्यापथिक पुण्य रूप ही होती है। 27 ये तेरह क्रियाएं (सूत्रकृतांग और आवश्यक सूत्र पर आधारित ) निम्न है
(1) अर्थदण्ड
(2)
(4) अकस्मात् दण्ड (5) (7) अदत्तादान प्रत्ययिक ( 8 ) ( 10 ) मित्रदोष प्रत्ययिक ( 11 ) (13) ऐर्यापथिक
अनर्थ दण्ड
दृष्टि दोष दण्ड
अध्यात्म प्रत्ययिक माया प्रत्ययिक
(3)
6 )
हिंसा दण्ड
मृषा प्रत्ययिक
मान प्रत्ययिक
(12) लोभ प्रत्ययिक
(
( 9 )
(1) अर्थ दण्ड- अर्थ का मतलब है- प्रयोजन। जिस हिंसा के पीछे कोई उद्देश्य निहित होता है, वह अर्थ दण्ड है। उदाहरणार्थ ज्ञाति, परिवार, मित्र, घर, देवता, भूत, यज्ञ आदि के प्रयोजन से की जाने वाली हिंसा । इसमें व्यक्ति त्रस - स्थावर प्राणियों की मन-वचन-काया से स्वयं घात करता है, दूसरों से करवाता है और घात करते हुए का अनुमोदन करता है, परिणाम स्वरूप इस प्रकार की हिंसा से वह पाप कर्म का बंध करता है। 28
(2) अनर्थ दण्ड- निष्प्रयोजन, अविवेक और मनोरंजन के लिये प्राणियों को
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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