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अनुसार स्त्री-पुरुष से जनाकीर्ण स्थान में मलोत्सर्ग करने में प्रमाद वश लगने वाली क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया होती है। स्थानांग वृत्ति और तत्त्वार्थवार्तिक में अर्थ की भिन्नता है। स्थानांग वृत्ति के अनुसार सामन्तोपनिपात-जन-मिलन में होने वाली क्रिया है।186
तत्त्वार्थ वार्तिककार के अनुसार स्त्री - पुरुष, पशु आदि से व्याप्त स्थान में मलोत्सर्ग करना सामन्तोपनिपातिकी क्रिया है।187 हरिभद्र सूरि के अभिमत से सामन्तानुपात क्रिया का अर्थ है- स्थण्डिल आदि में भक्त आदि विसर्जित करने की क्रिया। स्थानांग वृत्ति में सामन्तोपनिपातिकी के दो प्रकार हैं- जीव सामन्तोपातिकी और अजीवसामन्तोपनिपातिकी।
जीव सामन्तोपनिपातिकी- अपने आश्रित बैल, हाथी, घोड़ा, दास-दासी . आदि के निमित्त से होने वाली क्रिया।
अजीव सामन्तोपनिपातिकी- रथ, घर, महल, धातु आदि का संग्रह करना तथा जन-समूह से उनकी प्रशंसा सुनकर हर्षित होना। इस निमित्त से उस मालिक को जो क्रिया होती है, वह अजीव सामन्तोनिपातिकी है। यह भी एक संकेत है। वस्तुतः प्रस्तुत क्रिया का आशय होना चाहिये कि जीव-अजीव आदि द्रव्य समूह के संपर्क से होने वाली मानसिक उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति अथवा उनके प्रतिकूल आचरण। (5) स्वहस्तिकी क्रिया (Undertaking others Duties out of Anger or Conceit)
स्थानांग वृत्ति के अनुसार स्वहस्त क्रिया का अर्थ है- अपने हाथ से निष्पन्न क्रिया।188 जीव-अजीव के निमित्त से यह क्रिया दो प्रकार की है। स्थानांग वृत्तिकार ने जीव स्वहस्तिकी क्रिया की परिभाषा इस प्रकार की है- जहां अपने हाथ में धारण किये खड्ग आदि शस्त्र से किसी जीव को मारा जाये अथवा अपने हाथ से मारा जाये, उस निमित्त से होने वाली क्रिया जीव स्वहस्तिकी है। अथवा क्रोध अभिमान के वशवर्ती होकर दूसरों को काम से हटा स्वयं अपने हाथ से करने पर जो क्रिया लगती है, वह जीव स्व-हस्तिकी है। तत्त्वार्थवार्तिक में भी यही अर्थ उपलब्ध है।
उसके अनुसार दूसरों के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं करना जीव स्वहस्तिकी क्रिया है।189अजीव अर्थात् खड्गादि शस्त्रों के निमित्त से होने वाली क्रिया अजीव स्वहस्तिकी है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया