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पर निर्मित यन्त्रों का भी एक बृहद् संग्रह है। यद्यपि जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश एवं लघुविद्यानुवाद दोनों ही ग्रन्थों की रचना दिगम्बर परम्परा में ही हुई है फिर भी लघुविद्यानुवाद में आचार्यश्री ने न केवल दिगम्बर परम्परा में प्रचलित यन्त्रों का संग्रह किया है अपितु उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित घण्टाकर्ण महावीर और उवसग्गहर स्तोत्र पर आधारित यन्त्र एवं अन्य ऐसे ही कुछ अन्य यन्त्रों का संग्रह किया है। ___मात्र यही नीं, उनके इस ग्रन्थ में भैरव, सुग्रीव, हनुमान, गरुड़, शंकर, महादेव, शिव, तारा, चामुण्डा आदि हिन्दू परम्परा के अनेकों देवी-देवताओं द्वारा अधिष्ठित मंत्र और यन्त्र भी संगृहीत है। इसके साथ ही जहां तक मंगलम्, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश
और भैरवपद्मावतीकल्प में संगृहीत यन्त्रों का प्रश्न है, उनमें संख्या पर आधारित यन्त्रों का प्रायः अभाव ही है।
इनमें मात्र दो-तीन यन्त्र ही ऐसे हैं जिनमें संख्याओं का उल्लेख हुआ है, वहीं लघुविद्यानुवाद में संगृहीत यन्त्रों में दो सौ से अधिक यन्त्र संख्याओं पर आधारित हैं। मात्र इतना ही नहीं लघुविद्यानुवाद में सामान्य यन्त्रों एवं संख्या पर आधारित यन्त्रों का निर्माण किस प्रकार करना चाहिए और उन्हें सिद्ध किस प्रकार से करना चाहिए, इसका ' भी विस्तार से उल्लेख हुआ है। जिन पाठकों की इसमें रुचि हो वे उन्हें देख सकते हैं। यांत्रिक क्रिया ___ मंत्र शास्त्र के विकसित रूप ने यंत्र को जन्म दिया। यंत्र भी वस्तुत: संख्यामय मंत्र ही है किन्तु रचना की दृष्टि से नितान्त भिन्नता दिखती है। मंत्र-साधना, ध्वनि पर आधारित है और इसके अत्यधिक प्रभाव के लिये नि:संदेह यंत्र की रचना, प्राण-प्रतिष्ठा और आराधना की जाये तो वे साधक के लिये ही नहीं, साधारण दर्शक के लिये भी सिद्धिदायक, कल्याणकारी और परम हितकारी हो सकते हैं। - यंत्रों के भी अपने विधि-विधान हैं। उनका पालन करना अत्यावश्यक है। नियम - विधि से परिणति निश्चित है। अत: कार्य-सिद्धि, सुगमता और निश्चित परिणाम के लिये नियमों का महत्त्व सर्वोपरि है। थोड़ा सा प्रमाद भी साधना में असफलता के साथ अनिष्ट परिणाम भी ला देता है। किस विषय में कौनसा यंत्र किस रूप में लिखा जाता है। पहले उसकी अवगति कर लेना चरूरी है। जैसे
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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