________________
तृतीय अध्याय क्रिया और कर्म-सिद्धांत
क्रिया की मूल जड़ अध्यवसाय है। अनन्तर जड़ें लेश्या, भाव और संवेग हैं। अध्यवसाय को समझने के लिए आत्मा और उसके परिपार्श्व में क्रियाशील कर्मशरीर को समझना आवश्यक है। कर्म शरीर में भी कषाय के जगत् को समझना आवश्यक है। प्रस्तुत अध्याय में अध्यवसाय के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लेश्या और कर्म के साथ क्रिया के संबंध को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। क्रिया और अध्यवसाय
अध्यवसाय चेतना की सूक्ष्म परिणति का नाम है। यह प्राणी मात्र में पाया जाता है। सूक्ष्म रूप में जितने कर्म-संस्कार, वृत्तियां, वासनाएं, आवेग और आवेश हैं, वे सभी सूक्ष्म शरीर में अध्यवसाय के रूप में पाये जाते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे अचेतन मन कहा जा सकता है।
__ आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार जीव का शुद्ध स्वरूप चैतन्य है। उसके चारों ओर कषाय के वलय के रूप में कार्मण शरीर है। चैतन्य के असंख्य स्पंदन कषाय वलय को भेद कर बाहर आते हैं। उनका एक स्वतंत्र तंत्र बन जाता है, वही अध्यवसाय तंत्र कहलाता है। अन्तः करण की प्रवृत्ति, हलचल, विचारों की लहरें भाव हैं।' इसे अभिप्राय भी कहते हैं। समयसार में बुद्धि, अध्यवसाय, व्यवसाय, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम को एकार्थक माना है। चित्त के सूक्ष्म संस्कारों की बार-बार स्फुरित होने वाली विचार तरंगों को भी अध्यवसाय कहते हैं। भावना भी अध्यवसाय है। मन सभी प्राणियों में नहीं होता किन्तु अध्यवसाय प्राणी मात्र में होता है। सूक्ष्म जीवों में ज्ञान का साधन अध्यवसाय है। अध्यवसाय असंख्य हैं। ‘असंखेज्जा अज्झवसाणठाणा' लोक के जितने प्रदेश हैं, उतने ही अध्यवसाय हैं। वे निरन्तर क्रियाशील हैं।
क्रिया और कर्म-सिद्धांत
123