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अध्यवसाय शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं। राग -द्वेष से संवलित अध्यवसाय अशुद्ध हैं, राग-द्वेष से रहित शुद्ध हैं। अध्यवसायों की शुद्धता - अशुद्धता का मूल हेतु कषायों की तीव्रता और मंदता है। अध्यवसाय जब तैजस शरीर के स्तर पर पहुंचते हैं तब लेश्या तंत्र के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं वही आगे औदारिक शरीर में भाव, विचार और व्यवहार में अभिव्यक्त होता है। लेश्या का सम्बन्ध सूक्ष्म और स्थूल दोनों शरीरों से है। अधोचित्रित यंत्र में इसका स्पष्ट दिग्दर्शन है
हाचिक क्रिया भाव त श्या
माना
सायिक क्रि
(आत्मा)
मसिक क्रिया
अन्तः
"यास शरी
पयां
तखावी बाव की तंत्र । यो
इस प्रकार हमारी चेतना तीन स्तरों पर कार्य करती है(1) अध्यवसाय का स्तर- कार्मण शरीर के साथ क्रियाशील चैतन्य रश्मियां। (2) लेश्या का स्तर - तैजस शरीर के स्तर पर क्रियाशील चैतन्य रश्मियां। (3) भाव का स्तर- स्थूल शरीर के स्तर पर क्रियाशील चैतन्य रश्मियां।
अध्यवसाय एक सूक्ष्म तरंग है। तरंग सघन होकर भाव बनती है। दूसरे शब्दों में, जीव जब अपने प्रयत्न द्वारा औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षयोपशमिक आदि विविध रूपों में अपनी अभिव्यक्ति देता है, वह अभिव्यक्ति भाव कहलाती है। भावों की जनक लेश्या है। लेश्या सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के संबंध का माध्यम है। इसका कार्य अध्यवसाय रूपी सूक्ष्म स्पंदनों को भाव रूप में परिवर्तित कर क्रियातंत्र तक पहुंचाना है। इस प्रकार अध्यवसाय और लेश्या में घनिष्ठ सम्बन्ध है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया