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प्राणी हिंसा के लिये प्रेरित होता है, वह प्राणातिपात है। जिससे असत्य में प्रवृत्त होती है, वह मृषावाद पाप है।
पुण्य और धर्म भिन्न हैं, वैसे ही अधर्म और पाप भी भिः। है। अधर्म असत् प्रवृत्तिरूप हैं, पाप उसके द्वारा आकृष्ट अशुभ कर्म पुद्गल हैं। अधर्म चेतना की वैभाविक अशुभ परिणति है और पाप कर्म-पुद्गलों की अशुभ परिणति है।
पुण्य-पाप का बंध एक साथ नहीं होता। सातवें गुणस्थान से अशुभयोग जनित पाप के बंधन का निरोध हो जाता है। दसवें गुणस्थान तक केवल नैरंतरिक पाप का बंध होता है। ग्यारहवें से लेकर आगे वह सूक्ष्म अध्यवसाय जनित नैरंतरिक पाप भी नहीं होता। बौद्ध दर्शन में कायिक, वाचिक, और मानसिक आधार पर दस प्रकार के पापों (अकुशल कर्म) का वर्णन है।58 कायिक- प्राणातिपात, अदत्तादान, कामेसु मिच्छाचार (काम भोग सम्बन्धी
दुराचार)। वाचिक- मृषावाद, पिसुनवाचा, फरुस वाचा (कठोर वचन) सम्प्रलाप (व्यर्थ
प्रलाप)। मानसिक- अभिजा (लोभ), व्यापाद (मानसिक हिंसा), मिच्छादिट्ठी। क्रिया और भाव
जीवन की यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है। चैतन्य धारा का मूल केन्द्र हैआत्मा। उसकी परिधि में अनेक तत्त्व सक्रिय हैं। उनमें एक है- भावतंत्र। भाव का सघन रूप है- क्रिया। विचारों के जनक भाव हैं। विचार क्रिया की प्रसव भूमि है। क्रिया स्थूल है। विचार उससे सूक्ष्म और भाव उससे भी सूक्ष्म है। क्रिया और विचार दोनों स्नायविक प्रेरणाएं है। भाव स्नायविक प्रवृत्ति नहीं, वह स्थूल शरीर से परे चेतना की प्रवृत्ति है। भाव के निर्माण की एक लम्बी प्रक्रिया है। भाव का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ
'भू' धातु से भाव शब्द की निष्पत्ति दो रूपों में होती है। 1. भू + अच् भावः, भवति इति भावः जो होता है, वह भाव है।
2. भू + णिच् + अच् भावः, भावयति इति भाव-जो भावना कराता है, वह भाव है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया