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बुद्ध ने कहा- भिक्षुओं ! भिक्षु जाते हुए ‘जाता हूं' जानता है। बैठे हुए बैठा हूं' जानता है। सोए हुए 'सोता हूं' जानता है। जिस रूप में उसकी काया अवस्थित होती है, उसी रूप में वह उसे जानता है। उसी प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी बनकर विहार करता है। काया में समुदय (उत्पत्ति) धर्म देखता है। काया में व्यय (विनाश) धर्म और काया समुदय-व्यय धर्म देखता हुआ विहरण करता है।216 इस प्रकार जैनदर्शन में जिसे ईर्यापथ अथवा असाम्परायिक क्रिया कहा जाता है, बौद्ध उसे क्रिया चेतना कहते हैं।
__ ऐर्यापथिकी क्रिया में होने वाले कर्म-बंध की प्रक्रिया का निर्देश भगवती में है। इस क्रिया के प्रथम समय में कर्म का बंध और स्पर्श होता है। कर्म प्रायोग्य परमाणु-स्कंधों का कर्म रूप में परिणमन होना ‘बद्ध-अवस्था' है। जीव प्रदेशों के साथ उनका स्पर्श होना स्पृष्ट अवस्था है। इन्हें क्रमश: बध्यमान और वेद्यमान अवस्था भी कहा जाता है। द्वितीय समय में बद्ध कर्म का वेदन होता है। तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। सूत्रकार ने द्वितीय समय की अवस्था को 'उदीरिया वेइया' इन दो शब्दों के द्वारा निर्दिष्ट किया है। इसका तात्पर्य है कि कर्म का उदय और वेदन ये दोनों अवस्थाएं अलग-अलग समय में होती है क्योंकि जिस समय बंध होता है, उस समय उदय नहीं होता। वृत्तिकार के अनुसार तीसरे समय में कर्म अकर्म हो जाता है फिर भी सूत्रकार ने अतीत और भविष्य की सन्निधि में एकता का उपचार कर चौथे समय में अकर्म होने की बात की है।217
कर्म की अनेक अवस्थाएं हैं। उनमें प्रथम अवस्था बंध और अन्तिम अवस्था उदय है। उदय काल में कर्म का वेदन होता है।218वेदन के बाद कर्म नो-कर्म बन जाता है। वेदना कर्म की होती है, निर्जरा अकर्म की होती है। फल-विपाक के बाद कर्म की फलदान शक्ति समाप्त हो जाती है, वह फिर कर्म नहीं रहता, नो-कर्म बन जाता है।219 वेदना और निर्जरा का समय पृथक् होता है। जैसा कि गौतम- महावीर के संवाद से स्पष्ट होता है
गौतम-भंते ! क्या वेदना और निर्जरा एक है ? महावीर- दोनों एक नहीं है। वेदना कर्म की होती है जबकि निर्जरा नो-कर्म की होती है। 220 यह निश्चय नय का अभिमत है। सूत्रकार ने जो चतुर्थ समय में अकर्म होने की बात कही है, वह व्यवहार नय की अपेक्षा से है । ऐर्यापथिक क्रिया आत्मसंवृत,221 संवृत,222 अवीचिपथ में स्थित संवत223 भावितात्मा अनगार224 के होती है। काल की अपेक्षा ईर्यापथिक बंध द्विसामयिक है। जयाचार्य ने ऐसा ही माना है।225 तत्त्वार्थ भाष्यकार ने एक समय स्वीकार किया है।
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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