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1. अणिमा- अणु के समान सूक्ष्म रूप धारण कर लेना। 2. महिमा- शरीर को बड़ा कर लेना। 3. लघिमा- शरीर को हल्का कर लेना। 4. गरिमा-शरीर को भारी बना लेना। 5. प्राप्ति-संकल्प मात्र से इच्छित वस्तु प्राप्त कर लेना। 6. प्राकाम्य- अनायास पदार्थ सम्बन्धी इच्छा पूर्ति हो जाना। 7. ईशिता- पदार्थों को नाना रूपों में उत्पन्न करना। 8. वशिता- प्रत्येक वस्तु पर अपना आधिपत्य कर लेना।
विभिन्न स्वर, व्यंजन और शब्दों से निष्कासित ध्वनि से नाद उत्पन्न होता है। नाद का प्रभाव भी पृथक्-पृथक् होता है उससे एक वातावरण बनता है, शरीर, मन, मस्तिष्क तथा वाणी आदि प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि विविध कामनाओं एवं कार्यों के निमित्त से विभिन्न मंत्रों का सृजन हुआ है।
मनुष्य जब शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक या आदि भौतिक व्याधियों से गुजरता है, तब सहज ही उसका ध्यान तीन शब्दों पर जाता है-मंत्र-यंत्र-तंत्र। उनका विश्वास है कि इनमें से किसी एक या समुच्चय से बाधाओं का निरसन हो सकता है। हम स्वस्थ रह सकते हैं। तीनों में मंत्र शब्द बहुत प्रचलित है। भले यंत्र-तंत्र कम प्रचलित हो किन्तु तीनों एक दूसरे से सम्बन्धित ही है।
लगता है प्रारम्भ में तंत्र भी मंत्रों में ही समाहित थे। कालान्तर में जब मंत्र अध्यात्म शक्ति के प्रतीक बन गये तो तंत्र भौतिक क्रियाओं के समुच्चय के रूप में उनसे पृथक् हो गये। यह पृथक्करण सातवीं, आठवीं सदी में माना जाता है। तीनों अनन्य है, जहां मंत्र मानसिक क्रिया प्रधान है वहां यंत्र बीजाक्षरों एवं आकृतियों पर आधारित है। तंत्र भौतिक क्रिया प्रधान है। फलतः
1. मंत्र- मनोभौतिक (मनःप्रधान शक्ति स्रोत) 2. तंत्र- भौतिक (भौतिक क्रिया प्रधान शक्ति स्रोत)237अ 3. यंत्र-मंत्र एवं तंत्र का अधिकरण है।
वेद, पुराण, तंत्र शास्त्र आदि में इस प्रकार के मंत्रों का बाहुल्य है। मारण, मोहन, वशीकरण, स्तंभन, उच्चाटन, आकर्षण, विद्वेषण आदि अलग-अलग मंत्र हैं।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
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