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इसी प्रकार बाण का आलापक भी ज्ञातव्य है। कोई व्यक्ति बाण फेंकता है। मृग को आहत करता है। प्राण हरण करता है, वह क्रमश: तीन-चार-पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। अग्नि के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का आलापक है। घास का ढेर लगाना, अग्नि प्रक्षेप करना और उसे जला डालने वाला भी क्रमशः तीन-चार-पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है।
हिंसा के इस सूक्ष्म विवेचन में महावीर ने विभज्यवाद का प्रयोग किया है। उनके मत में प्राणवध करना ही हिंसा नहीं है अपितु उसके लिए प्रयत्न या चेष्टा करना भी कायिक क्रिया है, शस्त्र - प्रयोग आधिकरणिकी, द्वेषयुक्त भावना प्रादोषिकी, परिताप देना पारितानिकी और प्राणवध प्राणातिपातिकी क्रिया है।
__ यहां एक प्रश्न हो सकता है कि व्याध मृग को मारने के लिये कूटपाश की रचना करता है। वह हिंसक है या नहीं ? समाधान विभज्यवाद के आधार पर ही किया जा सकता है। व्याध मारने के लिये प्रयत्नशील है इसलिये उसे अहिंसक नहीं कहा जाता और न तो वह मृग को परिताप दे रहा है, न मार रहा है तब मारने वाला भी नहीं कहा जा सकता। हिंसा एक परम्पराबद्ध प्रवृत्ति है। मानसिक द्वेष, कायिक चेष्टा और शस्त्र - प्रयोग ये सब हिंसा की कड़ियां हैं। परिताप और प्राणवध हो या न हो, हिंसा के लिये उद्यत व्यक्ति भी हिंसक ही है।
सूत्रकार ने इस मर्म का उद्घाटन किया कि परितापन और प्राणातिपात तो हिंसा है, उस दिशा में किया गया संकल्प, प्रणिधान, परिस्पंदन और वध की सामग्री का संग्रह भी हिंसा है। वस्तुत: हिंसा की इस सूक्ष्म विचारणा पर ही क्रिया का सिद्धांत विकसित हुआ है। प्रारंभ में ही यह स्पष्ट किया जा चुका है कि कर्म-बंध की निमित्तभूत्त
चेष्टा को क्रिया कहते हैं। इस संदर्भ में एक समस्या और है कि कोई पुरुष मृग मारने की दृष्टि से बाण चलाने की मुद्रा में है, उसी समय उसे कोई दूसरा आकर मार डालता है। उस म्रियमाण व्यक्ति के हाथ से बाण छूटा और मृग मर गया। वहां वधक किसे माना जाये ? धनुर्धर को अथवा उस मारने वाले को ? भगवती भाष्य के अनुसार धनुर्धर को मारने वाले का मृग को मारने का, संकल्प नहीं है। इसलिये वह धनुर्धर का ही वधक है, मृग का नहीं। हिंसा के अनेक विकल्प हैं। उनमें दो मुख्य हैं
(अ) आभोगजनित हिंसा - संकल्प पूर्वक की जाने वाली। (ब) अनाभोगजनित हिंसा - अज्ञात स्थिति में होने वाली।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया