________________
एक विचार धारा में माया को कषाय का वाचक माना है। इस दृष्टि से जयाचार्य ने माया प्रत्यया क्रिया की प्राप्ति दसवें गुणस्थान तक बतलाई है।120 मायी मिथ्यादृष्टि शब्द में मिथ्यादृष्टि के साथ 'मायी' शब्द का सम्बन्ध स्थानांग में उल्लिखित क्रिया के छठे युगल की 'माया-प्रत्यया' के साथ संभव है। माया-प्रत्यया और मिथ्यादर्शन प्रत्यया युगल के पीछे कोई सापेक्ष दृष्टि होनी चाहिये। चूंकि एक दृष्टि से विचार करे तो माया एवं असत्य एकार्थक हैं। असत्य का अर्थ है- माया और विसंवादन योगा121 विसंवादन योग अर्थात् कथनी-करनी का वैषम्य। इसी आधार पर माया के आत्मभाव वंचन, परभाव वंचन दो भेद किये गये हैं।
(4) अप्रत्याख्यान क्रिया (Harbouring passion and possessiveness)- प्रत्याख्यान आन्तरिक अनासक्ति का प्रतीक है। प्रति + आ + ख्या धातु अनेक अर्थों की द्योतक है जैसे- परित्याग करना, सावध आचरण से निवृत्त होना, अस्वीकार करना,122 निषेध करना इत्यादि।123 प्रत्याख्यान एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ विरति है। अप्रत्याख्यान अर्थात् अविरति। अविरति-आश्रव है। कर्मागम का द्वार है।
"प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाद्यत्किंचन कारितया तत्प्रत्ययिका तन्निमित्ताभावादुत्पद्यतेऽप्रत्याख्यान क्रिया।"124
प्रत्याख्यान के अभाव में जो कुछ किया जाता है, वह अप्रत्याख्यान क्रिया के अन्तर्गत आता है। तत्त्वार्थवार्तिक में अप्रत्याख्यान क्रिया की कर्मशास्त्रीय परिभाषा है-संयम के विघातक कर्मों का उदय होने के कारण विषयों से अनिवृत्ति की स्थिति अप्रत्याख्यान क्रिया है।
प्रत्याख्यान की योग्यता सब जीवों में समान नहीं होती। नैरयिकों के प्रबल असातवेदनीय के संवेदन के कारण प्रत्याख्यान की चेतना जाग नहीं सकती। प्रबल सात वेदनीय के संवेदन के कारण देवों में प्रत्याख्यान के प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं होता। एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव अमनस्क हैं। उनमें मानसिक विकास का अभाव है। इसलिये उनमें व्रत ग्रहण का संकल्प असंभव है। समनस्क तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में स्वल्प मानसिक विकास होने से प्रत्याख्यान की उनमें आंशिक क्षमता होती है। मनुष्य में मानसिक विकास पर्याप्त मात्रा में होता है अत: वे आंशिक या पूर्ण प्रत्याख्यान की दिशा में बढ़ सकते हैं। अप्रत्याख्यान जीव की एक सामान्य अवस्था है। उसका हेतु
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
72