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करना।
(2) विपरीत - वस्तु तत्त्व को यथार्थ में ग्रहण न कर विपरीत रूप से ग्रहण
(3) वैनयिक - बिना किसी विमर्श के परम्परागत तथ्यों, धारणाओं, नियमोपनियम को मान लेना यह एक प्रकार की रूढ़िवादिता है ।
( 4 ) संशय - संशयावस्था को भी मिथ्यात्व माना है।
(5) अज्ञान - ज्ञान का अभाव। यह मिथ्यात्व का अभावात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है।
जैन चिन्तकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत ग्रहण, संशय और एकान्तिक ज्ञान से पृथक् माना है। ये चारों मिथ्यात्व के विधायक पक्ष है। इनमें ज्ञान का अभाव नहीं अपितु ज्ञान की उपस्थिति है किन्तु अयथार्थ होने से मिथ्यात्व कहा जाता है।
मिथ्यात्व के दस 148 एवं पच्चीस भेदों 149 का भी निरूपण है। बौद्धदर्शन में अविद्या बीस प्रकार बतलाये गये है। 150 दोनों दर्शनों की विचारधारा में काफी साम्य है। गीता में मोह, अज्ञान या तामस ज्ञान ही मिथ्यात्व है। 151 पाश्चात्य दर्शन में भी मिथ्यात्व को यथार्थ - बोध में बाधक तत्त्व माना है। सत्य के जिज्ञासु को मिथ्या धारणाओं से अलग रहने का निर्देश दिया है। पाश्चात्य दर्शन में नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन ने कहा हैनिर्दोष ज्ञान के लिये मानव को चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रहना जरूरी है। जैसे
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(1) जातिगत मिथ्या धारणाएं (Idole tribius) - सामाजिक संस्कारों से प्राप्त मिथ्या धारणाएं।
(2) व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास (Idole Specus) - व्यक्ति के द्वारा बनाई गई मिथ्या धारणाएं।
(3) बाजारू मिथ्या विश्वास (Idole Fori) - असंगत अर्थ आदि । (4) रंग- मंच की भ्रान्ति (Idole Theatri ) - मिथ्या सिद्धांत या मान्यताएं । उनके अभिमत से इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त कर ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ग्रहण किया सकता है। 152
जैन दर्शन में मिथ्यात्व या अविद्या केवल आत्म-निष्ठ (Subjective) ही नहीं, वह वस्तुनिष्ठ भी है। एकान्त या निरपेक्ष दृष्टि मिथ्यात्व है। इससे होने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी है। इसका कर्त्ता मिथ्यादृष्टि कहलाता है। सम्यग्दृष्टि इसका प्रतिपक्ष है। जैनागमों क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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