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(3) माया प्रत्यया क्रिया (Deceitful Action)- इस क्रिया का सम्बन्ध कषाय से है। जब तक स्थूल या सूक्ष्म रूप में कषाय आत्मा में विद्यमान रहता है तब तक प्राणी इस क्रिया से मुक्त नहीं हो सकता। दसवें गुणस्थान से आगे कषाय का उपशम या क्षय हो जाता है। अतः वहां माया प्रत्यया क्रिया नहीं है। माया कषाय का ही प्रकार है। एक के ग्रहण करने से दूसरे भेद स्वत: गृहीत हो जाते हैं। ऋजुता की मिथ्या संस्थिति का नाम माया है। स्थानांग वृत्ति में इसके दो अर्थ किये है-113 माया के निमित्त से होने वाली क्रिया और माया पूर्ण चेष्टाएं।
माया अर्थात् अनार्जव, शठता। कपट के निमित्त से जो क्रिया होती है, वह माया-प्रत्ययिकी क्रिया है।114 तत्त्वार्थ वार्तिककार ने ज्ञान-दर्शन और चारित्र सम्बन्धी प्रवंचना को माया क्रिया माना है।115 ये केवल प्रतीक रूप हैं। व्यापक अर्थ में प्रत्येक प्रकार की प्रवंचना माया कहलाती है। माया के दो प्रकार हैं- आत्मभाव वक्रता, परभाव वक्रता।
आत्मभाव वक्रता-जहां आत्म भाव अप्रशस्त हो लेकिन बाहर से प्रशस्त भावों का प्रदर्शन हो। 'विषकुम्भ पयोमुखम्, जैसा व्यवहार हो, वह आत्मभाव वक्रता क्रिया है।116 परभाव वक्रता- झूठा तोल-माप करना, शुद्ध वस्तु में अशुद्ध का मिश्रण करना परभाव वक्रता है। यह दूसरों को धोखा देने के अभिप्राय से की गई क्रिया है। 117 कई गूढाचारी उल्लू के पंख की तरह तुच्छ होकर भी अपने को पर्वत के समान बड़ा मानते हैं। आर्य होकर अनार्य भाषा का प्रयोग करते हैं। अकरणीय कार्य करके आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करते। इस प्रकार के मायावी व्यक्ति माया प्रत्यया क्रिया से स्पृष्ट होते हैं।
स्थानांग सूत्र में क्रिया के बारह युगल हैं। उनमें माया प्रत्यया क्रिया का उल्लेख दो स्थानों पर हुआ है। छठे युगल में माया प्रत्यया और मिथ्यादर्शन क्रिया दोनों का एक साथ प्रयोग है। बारहवें युगल में प्रेयः प्रत्यया और द्वेष प्रत्यया या दोष प्रत्यया दोनों का सह नामोल्लेख है। प्रेय:प्रत्यया के दो प्रकार हैं- माया प्रत्यया और लोभ प्रत्यया।
भगवती वृत्तिकार ने माया का अर्थ ऋजुता का अभाव किया है। उपलक्षण से क्रोध आदि के ग्रहण का संकेत भी है।118 क्रोध और मान ये दो द्वेष प्रत्यया के भेद है119 इसलिये उनका ग्रहण यहां उचित प्रतीत नहीं होता।
आरंभिकी आदि पांच क्रियाओं में माया प्रत्यया क्रिया का जो उल्लेख है, उसका सम्बन्ध प्रेय:प्रत्यया से है और वह नौवें गुणस्थान में क्षीण होती है।
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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