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मनुष्य, नारक, देव, तिर्यञ्च किसी भी योनि में जा सकता है। प्रत्येक प्राणी 'सर्वयोनिक' है। योनियों के संवृत, विवृत, संवृत-विवृत, शीत-उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र आदि अनेक प्रकार हैं। सभी योनियां कर्महेतुक हैं। इसलिये एक दूसरी योनि में जाना आश्चर्य का विषय नहीं है। एक जन्म में प्राणी मनरहित है तो यह अनिवार्य नहीं कि भविष्य में अन्य योनि में जाकर भी वह अमनस्क ही रहे; वह समनस्क भी बन सकता है। इस प्रसंग में संक्रमण सिद्धांत के हेतुओं को समझना भी आवश्यक है। सूत्रकृतांग में संक्रमण के चार हेतुओं का निर्देश है। उनकी व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है-126
(1) अविविक्त-बद्ध कर्म प्राणी से पृथक् नहीं होते। कुछ कर्मों का पृथक्करण हो जाता है किन्तु समग्रतया विशोधन नहीं। अवशिष्ट कर्मों द्वारा वर्तमान जन्म में उद्वर्तन कर जीव उनके अनुरूप स्थान में उत्पन्न हो जाते हैं।
(2) अविधूत-जैसे वस्त्र को झटक कर धोया जाता है इसी प्रकार कर्मों को प्रकंपित कर देने पर भी वे शेष रह जाते हैं इसलिए जीव को पुनर्जन्म लेना पड़ता है।
(3) असमुच्छिन्न-कर्मों का सम्पूर्ण उच्छेद नहीं होता इसलिये पुनर्जन्म होता है।
(4) अननुतप्त-हिंसा आदि प्रवृत्तियों से कर्म-संचय (उपचय) कर जिन जीवों का अनुताप नहीं होता, उनके कर्मों के बंध का शिथिलीकरण नहीं होता अपितु कर्मबंधन अपना प्रगाढ़ विपाक देते है। फलतः उनका जन्मान्तर में संक्रमण होता है।
संक्रमण का हेतु कर्म है। पूर्वार्जित कर्म सर्वथा क्षीण नहीं होते तब तक नये कर्मों का आगमन होता रहता है। संज्ञित्व- असंज्ञित्व (मन का होना अथवा नहीं होना) भी कर्मों के आधार पर ही होता है। संज्ञित्व-असंज्ञित्व नैमित्तिक है, नैसर्गिक नहीं । ज्ञानावरणीय कर्म का उदय और क्षयोपशम इनमें निमित्त बनता है। असंज्ञित्व उदय भाव है। संज्ञित्व क्षयोपशम भाव है। सूत्रकार का प्रतिपाद्य है कि जीव संज्ञी हो या असंज्ञी, अविरत होता हैं। उनमें पाप कर्मों के निष्पादन की क्षमता है। चूर्णिकार ने प्रतिहत और प्रत्याख्यात को एकार्थक मानकर उनका अर्थ प्रतिषिद्ध या निवारित किया है।
प्रत्याख्यान का इतना गहन और सूक्ष्म चिन्तन जैन दर्शन की विशिष्टता है। बौद्ध दर्शन में आत्मा का अस्तित्व ही नहीं तब प्रत्याख्यान का प्रश्न ही नहीं रहता। सांख्य दर्शन में आत्मा अनुत्पन्न, अप्रच्युत है, उसमें प्रत्याख्यान की क्रिया संभव नहीं है। इसी प्रकार अन्यान्य दर्शनों में भी प्रत्याख्यान सम्बन्धी चर्चा दृष्टिगोचर नहीं होती। सूत्रकृतांग के चतुर्थ अध्ययन में 'प्रत्याख्यान- अप्रत्याख्यान' की विशद व्याख्या है। वृत्तिकार ने
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया