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मारता है, छेदन-भेदन करता है, अंगों को काटता है. चमडा और नेत्रों को उखाडता है. उपद्रव करता है, यह अनर्थदण्ड है। इसी प्रकार निरुद्देश्य स्थावर जीवों की हिंसा करना, चपलता वश वनस्पतियों को उखाड़ना, पर्वत और वन आदि में आग लगाना, नदीतालाब आदि में पत्थर फेंकना, ये सभी प्रवृत्तियां अनर्थदण्ड के अन्तर्गत हैं।29
गृहस्थ संपूर्ण हिंसा से बच नहीं सकता इसलिये हिंसा के उपर्युक्त दो भेद किये गये हैं- अर्थ हिंसा, अनर्थ हिंसा।
___ जैन तार्किकों ने जैसे इन्द्रिय मानस ज्ञान को परोक्ष होते हुए भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है। उसी प्रकार लौकिक अभ्युदय की हेतुभूत हिंसा को अर्थ-हिंसा या व्यवहार्य हिंसा माना है। लोक दृष्टि में जीवन-निर्वाह के लिये होने वाली अनिवार्य हिंसा को हेय नहीं बतलाया है। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति दूसरे पर आक्रमण करता है। तीसरा व्यक्ति आक्रांता को मार डालता है। सामाजिक नीति या व्यवस्था में उसे हिंसक न मानकर उसे उचित ठहराया जाता है किन्तु आध्यात्मिक जगत् के नियम इससे भिन्न है। आक्रांता को उपदेश देना उचित है किन्तु उपदेश न मानने पर दबाव डालना धर्म के अनुकूल नहीं। एक की रक्षा के लिए दूसरे के प्राणों का व्यपरोपण अहिंसा की दृष्टि से क्षम्य नहीं है।
(3) हिंसा दण्ड- कुछ लोग प्रतिशोध, प्रतिकार और आशंका वश हिंसा में प्रवृत्त हो जाते हैं। जैसे- 'इसने मेरे सम्बन्धी को मारा है इसलिये मैं उसे अवश्य मारुंगा', यह प्रतिशोध की भावना है।
'यह मेरे स्वजन को मार रहा है इसलिये इसे मार देना चाहिये', यह प्रतिकार की वृत्ति है। यह जीवित रहा तो मुझे मारेगा। मैं उसे पहले ही मार डालूं, इस आशंका से की जाने वाली हिंसा है। कंस ने देवकी पुत्रों को अपनी मृत्यु की आशंका से मार डाला था। परशुराम ने अपने पिता की घात से क्रोधित हो कार्तवीर्य का वध किया। बहुत से व्यक्ति सिंह, सांप आदि प्राणियों का वध इसलिये कर डालते है कि ये जीवित रहकर दूसरों को मारेंगे। यह हिंसा दण्ड है। प्रतिशोधात्मक हिंसा का सम्बन्ध अतीत से है, प्रतिकारात्मक हिंसा का वर्तमान और आशंका जनित हिंसा का सम्बन्ध भविष्य से है।
(4) अकस्मात् दण्ड-किसी प्राणी की हत्या करने के उद्देश्य से चलाए हुए शस्त्र द्वारा यदि दूसरे प्राणी का वध हो जाये, उसे अकस्मात् दण्ड कहते हैं। घातक
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया