________________
1. कायिकी (Physical Enthusiasm) ___जो उपचय रूप हो, वह काया है। काया सम्बन्धी या काया द्वारा की गई क्रिया कायिकी है।52 केवल स्थूल या कार्य करने का क्षण ही क्रिया नहीं है अपितु कार्य करने की जो आन्तरिक इच्छा, अभिलाषा या आकांक्षा है, वह भी क्रिया है। इस आधार पर कायिकी क्रिया को दो भागों में विभक्त किया गया है। पूछा गया- 'काइया णं भंते! किरिया कइविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नता। तं जहा- अनुवरयकाइया य दुप्पउत्तकाइया च"153
गौतम और मण्डित पुत्र द्वारा पूछे जाने पर भगवान महावीर ने बताया- क्रिया के अनुपरत कायिकी और दुष्प्रयुक्त कायिकी ये दो भेद है। - 1. अनुपरत कायिकी-देशतः सावध, सर्वतः सावद्य योगों से जो विरत हो, वह उपरत है। जो उपरत-विरत न हो वह अनुपरत है। अर्थात् काया संबंधी प्राणातिपातादि से देशतः या सर्वतः विरत-निवृत्त न होना- अर्थात् विरति रहित व्यक्ति की काया की प्रवृत्ति अनुपरत कायिकी क्रिया है । यह क्रिया अविरत को लगती हैं।
2. दुष्प्रयुक्त कायिकी- काया आदि का दुष्ट प्रयोग करना, यह क्रिया प्रमत्त संयमी को लगती है क्योंकि प्रमत्त होने पर काया का दुष्प्रयोग संभव है। इन्द्रिय और मन के विषयों में आसक्त व्यक्ति की काय-प्रवृत्ति दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया है।
भगवती4 और प्रज्ञापना वृत्ति के अनुसार स्वामित्व की दृष्टि से अनुपरत कायिकी क्रिया अविरत व्यक्ति के होती है। जबकि दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया अविरत
और विरत दोनों के होती है। हरिभद्र सूरि का मत इससे भिन्न है। उनके अनुसार अनुपरत क्रिया मिथ्यादृष्टि के शरीर से होने वाली क्रिया है। दुष्प्रयुक्त कायिकी प्रमत्त संयति के द्वारा होनेवाली क्रिया है। हरिभद्र का यह अभिमत संगत नहीं लगता। यदि मिथ्यादृष्टि की क्रिया को अनुपरत कायिकी क्रिया माना जाये तो अविरत सम्यक् दृष्टि, देशविरत की असंयत क्रिया को क्या कहेंगें।56(अ) इस विषय में कोई निर्देश नहीं मिलता, इसलिये यही उपयुक्त है कि मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग् दृष्टि और देशविरत की क्रिया अनुपरत कायिकी है और प्रमत्त संयति की दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया है। जिनका कायादि व्यापार दुष्प्रयुक्त है अथवा जिनकी इष्ट-अनिष्ट विषय प्राप्ति में किंचित् भी संवेग-निर्वेद की भावना नहीं है उनकी क्रिया दुष्प्रयुक्त कायिकी है। प्रमत्त संयत के भी काया का अशुभ
48
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया