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व्यापार संभव है। स्थानांग के टीकाकार के अनुसार मानसिक अशुभ संकल्प द्वारा मोक्ष मार्ग के प्रति उपेक्षा रखने वाले प्रमत्त संयत की कायिकी क्रिया भी दुष्प्रयुक्त है।
आचार्य अकलंक ने कायिकी क्रिया का अर्थ प्रद्वेष युक्त व्यक्ति का शारीरिक उद्यम किया है। हरिभद्र ने प्रमत्त संयत की क्रिया को दुष्प्रयुक्त माना है किन्तु विरति की अपेक्षा मुनि हिंसक नहीं होता। कारण वह सर्व पापविरति का पालन करता है। प्रमत्तसंयम (छठे गुणस्थान-वर्ती) कभी प्रमादवश दुष्प्रवृत्ति कर लेता है, वह हिंसा है।59 प्रत्याख्यानीय मोहोदय में सर्वविरति संभव नहीं। प्रत्याख्यानीय चारित्र मोह का विलय सबका समान नहीं होता। इसमें शक्यता-अशक्यता के आधार पर तीन पक्ष बनते हैं।
देश से या सर्व से जो सावध योग से निवृत्त नहीं हुआ है उसकी कायिक प्रवृत्ति अनुपरत क्रिया है। यह क्रिया अविरति की अपेक्षा से है। देश या सर्व विरति की अपेक्षा से नहीं।60 दुष्प्रवृत्ति की दृष्टि से पुरूष निरन्तर सक्रिय रहता है। अविरति सूक्ष्म अचेतन स्तर की क्रिया है। दुष्प्रवृत्ति स्थूल चेतन स्तर पर होने वाली क्रिया है। 2. umferenforcat (Using instruments of destruction)
क्रिया का दूसरा माध्यम है अधिकरण। इसका सम्बन्ध शस्त्र आदि हिंसक उपकरणों के संयोजन और निर्माण से है।61 हिंसादि पाप क्रियाओं की हेतुभूत वस्तु अधिकरण हैं। उसके दो पक्ष है- आन्तरिक और बाह्य। शरीर, इन्द्रियां आन्तरिक अधिकरण है। यंत्र, शस्त्र आदि पौद्गलिक साधन बाह्य अधिकरण है। अविरत व्यक्ति का शरीर भी अधिकरण है।62
__ असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों के कर्ता अविरत होते हैं इसलिये उन्हें हिंसा कर्मकारी कहा है। प्रज्ञापना63 स्थानांग64 भगवती65 में
आधिकरणिकी क्रिया के दो प्रकार बताये हैं- (अ) संयोजनाधिकरणिकी और (ब) निर्वर्तनाधिकरणिकी।
(अ) संयोजनाधिकरणिकी-संयोजन का अर्थ है- जोड़ना। यंत्र, शस्त्र आदि के पुों को मिलाना। जैसे हल के अलग-अलग हिस्सों को जोड़कर हल तैयार किया जाता है वैसे ही पशु-पक्षियों के मारक शस्त्र आदि सभी पुर्जे मिलाकर एक करना। इसी प्रकार किसी पदार्थ में विष मिलाकर मिश्रित पदार्थ तैयार करना। इन सब क्रियाओं का समावेश संयोजन शब्द में हो जाता है। ये क्रियाएं संसार की हेतु है। इनके निमित्त से होने वाली क्रिया संयोजनाधिकरणिकी क्रिया है।66 क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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