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अनुयायी थे। उनकी मान्यताओं का विशद रूप सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में देखा जा सकता है और पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी विस्तार से लिखा है। सारांश
इस प्रकार भगवान महावीर के समय प्रचलित प्रसिद्ध विभिन्न मतों का - क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद इन चार वादों में समाहार किया गया है। टीकाकार ने अस्ति-नास्ति के आधार पर क्रियावाद - अक्रियावाद की व्याख्या की है। अस्तिवाद का क्रियावाद, नास्तिकवाद का अक्रियावाद नामकरण क्यों हुआ ? इस पर किसी टीकाकार ने प्रकाश नहीं डाला। किन्तु इसका संवादी प्रमाण है जो निम्नोक्त
अत्थि त्ति किरियावादी, वयंति णत्थि त्ति अकिरियवादी य। अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी॥7. क्रिया - अक्रिया
लोक - अलोक जीव - अजीव
सिद्धि - असिद्धि पुण्य - पाप
शाश्वत - अशाश्वत आश्रव - संवर
गति - आगति बंध - मोक्ष
सुकृत - दुष्कृत वेदना - निर्जरा
इहलोक - परलोक इन तथ्यों में सापेक्ष या निरपेक्ष रूप से विश्वास करते है, वे क्रियावादी हैं। इनका अस्तित्व नहीं मानने वाले अक्रियावादी हैं। सम्यग् दृष्टि क्रियावादी होते हैं अत: क्रियाओं के प्रकार एवं स्वरूप हमारे शोध का विवेच्य विषय हैं।
जैन मुनि के लिये एक संकल्प का विधान है जो प्रतिदिन किया जाता है- 'अकिरियं परियाणामि, किरियं उवसंपज्जामि-98 मैं अक्रिया का परित्याग करता हूं और क्रिया की उपसंपदा स्वीकार करता हूं
__क्रियावाद और अक्रियावाद का सिद्धांत प्राचीन है। ये दो विचारधाराएं मानव के विचार और आचार पक्ष को प्रभावित करती रही है। केवल दार्शनिक दृष्टिकोण ही नहीं, किन्तु वैयक्तिक जीवन से लेकर सामाजिक, राष्ट्रीय और धार्मिक जीवन की नींव भी इन्हीं पर खड़ी है। क्रियावादी, अक्रियावादी दोनों का जीवन-पथ समान नहीं हो सकता। क्रियावादी के प्रत्येक कार्य में आत्म-शुद्धि प्रमुख हैं। अक्रियावादी का दृष्टिकोण वैसा नहीं है, वह भोगोन्मुख है। आज की भाषा में क्रियावाद को अवचेतनवाद या कर्मवाद
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
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