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आगमों में क्रिया की परिभाषा दृष्टिगोचर नहीं होती है। टीकाकार, वृत्तिकार एवं चूर्णिकार के अनुसार क्रिया की परिभाषाएं निम्नानुसार हैं- आचारांग और सूत्रकृतांग के अनुसार क्रिया सद्-असद् अनुष्ठान रूप होती है। क्रिया का अर्थ है परिस्पन्दन, कंपन। उससे विपरीत अक्रिया होती है। अभयदेव सूरि, प्रज्ञापना के वृत्तिकार तथा मलयगिरि के अनुसार क्रिया अथवा करना मात्र क्रिया है। विशेष रूप से कर्मबंधन की हेतुभूत चेष्टा ही क्रिया है।
'कर्माकर्षक आत्मपरिणाम : आश्रव।' के अनुसार कर्मबंध का मूल हेतु मिथ्यात्व आदि परिणाम है। इनमें से एक है- 'क्रिया प्रवृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त क्रिया तो केवल योग आश्रव है। जबकि 'क्रिया' रूप में आत्मपरिणाम आश्रव का स्वतंत्र प्रकार है। आश्रव के 42 भेदों में इन्द्रिय (5), अव्रत (5), कषाय (4), योग (3) तथा क्रिया (25) का ग्रहण किया गया है।
इससे स्पष्ट होता है कि 25 क्रियाएं आश्रव का स्वतंत्र भेद है, योग के भेद नहीं है। 'शांत सुधारस' में भी कहा गया- 'इन्द्रियाव्रतकषाययोगजा..।' पांच आश्रवोंमिथ्यात्व, अव्रत, प्रकार, कषाय, योग में केवल योग ही प्रवृत्ति' रूप है। यदि क्रिया को प्रवृत्ति माना जाए तो वह योग आश्रव के अन्तर्गत होगी। किन्तु परिणाम रूप होने से मिथ्यात्व, आश्रव, प्रमाद और कषाय के अन्तर्गत ही हैं, योग के अन्तर्गत नहीं।'
व्यक्ति जैसी क्रिया करता है तदनुरूप ही कर्म बंध होता है। कर्मफल भी तथारूप होता है। कर्म-फल से बचने के लिये कर्मबंध से बचना अनिवार्य है और कर्म-बंध से बचने के लिए क्रियाओं से दूर रहना अनिवार्य है। ___ आगम साहित्य में बहुत बड़ा भाग क्रियाओं की चर्चा से परिव्याप्त है। प्रतिपादन की शैली कहीं संक्षिप्त है, कहीं विस्तृत। कहीं निश्चय दृष्टि का प्रयोग है, कहीं व्यवहार दृष्टि का। कर्म के शुभाशुभ विकल्पों, उसके परिणमन की विचित्रता को समझने के लिए क्रिया का विस्तृत विवेचन अपेक्षित है। जैन दर्शन के तीन आधार स्तंभ है-आत्मवाद, क्रियावाद और कर्मवाद। स्वाभाविक और वैभाविक क्रिया ____ आत्मा एक द्रव्य है, 'अर्थक्रियाकारित्वम्', यह द्रव्य का लक्षण है। जिसकी सत्ता है, वह निश्चित अर्थक्रिया करता है। अर्थक्रिया के अभाव में अस्तित्व नहीं। तर्क शास्त्र के अनुसार आकाश कुसुम, वन्ध्या-पुत्र, तुरंग-श्रृंग, शश-श्रृंग आदि अनस्तित्व
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
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