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इसीलिए आत्मवाद की भांति लोकवाद भी आचार का आधारभूत तत्त्व हैं। कर्मवाद का आधार हैं- बंध। बंध का हेतु है - क्रिया । क्रियावाद इसी अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या का एक स्तम्भ है।
आगमिक प्रतिपादन है - जीव को जानने के लिए अजीव को जानना अपेक्षित है । इसी शैली में कह सकते हैं अहिंसा को जानने के लिए हिंसा को जानना जरूरी है। आधुनिक शांतिवादी विचारक कहते हैं - कोई भी युद्ध रणभूमि से पहले मस्तिष्क में लड़ा जाता है। यदि मनुष्य अपने कमरे में शांति से जीना सीख ले तो वह विश्व में भी शांति से रह सकता है, विश्व शांति सहज स्थापित हो सकती हैं। भगवान महावीर इस सचाई को शब्द देते हैं - बाहर में घटित होने वाली हिंसा तो बहुत बाद की बात है, भीतर में हिंसा की लम्बी यात्रा इससे पूर्व हो चुकी होती है। शस्त्र के दस प्रकारों में भाव शस्त्र अर्थात् असंयम प्रधान शस्त्र है। दुष्प्रयुक्त मन-वचन-काया और अविरति भावये शस्त्र हैं।
क्रिया के पांच प्रकार हैं- कायिकी, आधिकारणिकी, प्रादोषिकी, परितापनिकी, प्राणातिपातक्रिया । काया - शरीर क्रिया की आधारभूमि है। आन्तरिक और बाह्य साधन अधिकरण है। राग द्वेष, ईर्ष्या आदि कषाय से आवेशित चित्त दोष रूप अग्नि में घी का कार्य करने वाला है, प्रदोषक हैं। दुःखोत्पत्ति का तंत्र परितापना, ताड़ना आदि हैं। कष्ट पहुंचाने से प्राणवियोजन, प्राण अतिपात तक की क्रिया प्राणातिपातक है। जैसे कुंभकार घट का निर्माण करते हुए पृथ्वी काय के जीवों की हिंसा करता है, तब भी वह पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रसकाय के जीवों की हिंसा करता है । व्याख्या का दूसरा प्रकार यह भी है - जो एक जीव की हिंसा करता है, वह वास्तव में सभी जीवों की हिंसा करता है क्योंकि वह अविरत है। जिसके जीव हिंसा की विरति नहीं है, वह जिस किसी जीव - निकाय की हिंसा में प्रवृत्त हो सकता है। इस चिन्तन की पृष्ठभूमि में अहिंसा और मैत्री का दर्शन छिपा हुआ है।
साधक के लिए सब जीवों की हिंसा निषिद्ध है। यह सर्व निषेध अहिंसा के चित्त का निर्माण करता है। एक जीव- निकाय की हिंसा विहित और अन्य जीव निकायों की हिंसा निषिद्ध हो तो अहिंसक चित्त का निर्माण नहीं हो सकता। जो व्यक्ति एक जीव निकाय की हिंसा करता है, उसके चित्त में व्यापक मैत्री का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। जिस साधक के चित्त में किसी एक जीव निकाय की हिंसा की भावना अव्यक्त रहती है, वह अहिंसा के पथ पर सर्वात्मना प्रस्थान नहीं कर पाता ।
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