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है। कर्म - फल का भोक्ता है। निर्वाण है। ये मत क्रियावाद के आधार हैं। इनमें से किसी एक को भी अस्वीकार करनेवाला अक्रियावादी कहलाता है।
सांख्य दर्शन में आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है, क्रिया का मूल प्रकृति है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जगत् का मूल उपादान परमाणु है। जगत् कार्य है, उसका कर्ता ईश्वर है। ईश्वर ही जीवों को कर्मानुसार फल देता है। कर्मफल आत्मा के अधीन नहीं है। इस दृष्टि से चूर्णिकार ने सांख्य और वैशेषिक को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया है। चूर्णिकार ने पंच महाभौतिक, चतुर्भोतिक, स्कंधगात्रिक, शून्यवादी, लोकायतिक को भी अक्रियावादी बतलाया है।56(ख)
हमारा अस्तित्व जड़ और चेतन दो तत्त्वों का संयोग है। उनमें से कुछ शरीर को महत्व देते हैं, आत्मा को स्वतंत्र सत्ता के रूप में स्वीकार नहीं करते। वे अनात्मवादी हैं। जबकि आत्मवादी की दृष्टि में आत्मा और शरीर भिन्न है। उन्हें चेतन का जड़ से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व मान्य है।
इसी चिंतन के आधार पर भारतीय चिन्तन दो धाराओं में विभक्त हो गया जो क्रमश: क्रियावाद और अक्रियावाद के नाम से प्रसिद्ध हैं। दोनों विचारधाराएं प्राचीनकाल से ही मानव जीवन के विचार और आचार पक्ष को प्रभावित करती रही हैं। उनसे केवल दार्शनिक चिन्तन ही नहीं वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और धार्मिक जीवन भी प्रभावित हुआ। क्रियावादी की जीवन शैली में भी अन्तर आया। क्रियावादी के प्रत्येक कार्य में आत्म-शुद्धि का लक्ष्य निहित रहता है। अक्रियावादी के लिये आत्मशुद्धि का महत्त्व नहीं रहा। अक्रियावादी में प्राचीन प्रतिनिधि चार्वाक दर्शन रहा। आधुनिक युग में उसका प्रतिनिधि साम्यवादी और पूंजीवादी विचारधारा मानी जा सकती। क्रियावाद-अक्रियावाद समीक्षा 1. क्रियावादी - आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष की स्वीकृति।
अक्रियावादी - आत्मा आदि की अस्वीकृति। 2. क्रियावादी - धर्मानुष्ठान में विश्वास।
अक्रियावादी - भौतिक सुखमय जीवन का समर्थन। 3. क्रियावादी - 'देहे दुक्खं महाफलं' का घोष। अक्रियावादी - ‘यावजीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्', की धारणा।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया