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10. इसी जन्म में निर्वाण- भिक्षुओं ! कितने ब्राह्मण पांच कारणों से ऐसा मानते हैं कि प्राणी का इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण हो जाता है।
इस मूल बातों के क्रम से 4+4+4+4+2+16+8+8+7+5= 62 कारणों से 62 मत होते हैं।
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जैन परम्परा के प्राचीन साहित्य में ये विचारधाराएं तत्कालीन मतवादों के रूप में संकलित है। किन्तु उत्तरवर्ती साहित्य में उनकी परम्परागत संख्या उपलब्ध है किन्तु उनका परिचय नहीं मिलता है। प्रतीत होता है कि उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने उन मतवादों को गणित की प्रक्रिया से समझाया हैं । किन्तु यह प्रक्रिया भी मूल स्पर्शी नहीं लगती है। विभिन्न विचारधाराओं के मौलिक स्वरूप विच्छिन्न होने के बाद उन्हें गणित के माध्यम से संख्यापूर्ति करके समझाने का प्रयास किया गया है। इस वर्गीकरण से दार्शनिक अवधारणा का सम्यक् बोध नहीं हो सकता । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों के साहित्य में प्रकार भेद के साथ यही प्रक्रिया मिलती है। उसके लिये आचारांग वृत्ति, स्थानांग वृत्ति', प्रवचनसारोद्धार' और गोम्मटसार' द्रष्टव्य है।
समवसरण बनाम दार्शनिक विचारधाराएं
जैन आगम साहित्य में चार समवसरण का उल्लेख मिलता है। 363 मतों का समावेश उन चार समवसरण में है । सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंध के 12वें अध्ययन का नाम ही समवसरण है। 10 उसका प्रारंभ इन चार समवसरणों के उल्लेख से हैं।
चत्तारि समोसरणा पण्णत्ता-किरियावादीअकिरियावादी अण्णाणियावादी -वेणइयावादी ।।
सूत्रकृतांग " 11 के साथ-साथ, स्थानांग 12, भगवती 13, कषायपाहुड 14, हरिभद्रीयटीकापत्र'', उत्तराध्ययन नेमीचंद्रीय टीका", सूत्रकृतांग नियुक्ति 7 और प्रवचनसारोद्धार के उत्तरभाग 8 में भी उपर्युक्त चार समवसरण की चर्चा है । 'समवसरण' शब्द अनेक वादों के संगम का नाम है। सम् + अव पूर्वक सृ गतौ धातु से ल्यूट् प्रत्यय होकर समवसरण शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है- वाद - संगम। जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं। सूत्रकृतांग- चूर्णि में समवसरण की व्याख्या करते हुए लिखा है
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'समवसरन्ति जेसु दरिसणाणि दिट्ठिओ वा ताणि समोसरणाणि।' इस
क्रिया की दार्शनिक पृष्ठभूमि
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