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है, वास्तविकता से साक्षात् होता है। संबोधि से समाधि की में प्रवेश ही कर्म से अकर्म और अस्तित्व में रमण है। इसकी प्राप्ति ही मुख्य प्रयोजन है।
जैन आचार - शास्त्र में विशेषतः असत्कर्म से सत्कर्म और फिर सत्कर्म से अकर्म की ओर बढ़ने की प्रेरणा निहित है। असत्कर्म और सत्कर्म का संबंध क्रिया से है। क्रिया कर्म की जननी है। क्रिया-विज्ञान वस्तुतः भारतीय ऋषियों के गहन अध्ययन की फलश्रुति है, चिन्तन के क्षेत्र में एक मौलिक देन है और इससे भी आगे हमारे अस्तित्व का मूलाधार है।
अपरिमेय ज्ञानपयोनिधि महाप्राण पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी, दिव्य आभा के धनी आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के द्वारा मुझे नया जीवन मिला है, जीवन को दिशा व गति प्रगति का विस्तृत आकाश मिला है। अर्हता या अच्छाई की दिशा में मेरे अस्तित्व में जो कुछ है, उन्हीं की परम कारुणिक दृष्टि का प्रसाद है । उनके द्वारा संपादित और प्रणीत साहित्य ही क्रिया संबंधी आगम के गहन रहस्यों को अनावृत उन्हें सरल भाषा में समझने में मदद कर पाया है। आपके द्वारा आलोकित अन्त:करण ही इस दुरूह कार्य को संपादित कर पाया है। पूज्य प्रवर सतत् श्रद्धाप्रणत समय ही इष्ट है ।
युवामनीषी युवाचार्यश्री, मातृहृदया साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी का मार्गदर्शन और वात्सल्य भाव ही मेरी सृजनधर्मिता का आधार बना है। पूज्यवरों को अनन्त श्रद्धासिक्त
नमन।
क्रिया को शोध का विषय बनाना मेरे लिये संयोग था। एम.ए. की परीक्षा हो चुकी थी। लाडनूँ की घटना है, साध्वी श्री नगीनाजी के साथ जैन विश्व भारती दर्शनार्थ गई। सहसा साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी ने मुझे आशीर्वाद देते हुए फरमाया - अध्ययन आगे बढ़ाना है, बंद नहीं करना है। इसी प्रेरणा ने मुझे शोध कार्य के लिए प्रेरित किया तथा मेरे कार्य की दिशा भी निश्चित की। जैन दर्शन विभाग की व्याख्याता डॉ. समणी चैतन्य प्रज्ञाजी ने मार्गदर्शन किया। मैं उनकी हृदय से आभारी हूँ ।
विषय गहन और जटिल होने के साथ न विशेष जानकारी, न व्यवस्थित सामग्री। नयी राह में चलने में योग और सहयोग मिला साध्वी श्री नगीनाजी और अन्य सहवर्ती रत्नाधिक साध्वीवृंद का । शक्ति, समय और श्रम के साथ सफलता संभव बनी । यद्यपि नवीनतम संदर्भों के संकलन में अनेक कठिनाईयां उपस्थित हुई, फिर भी साध्वी श्री नगीनाजी एवं सहवर्तिनी साध्वी श्री पद्मावतीजी, पुष्पावतीजी, मेरूप्रभाजी, मयंकप्रभाजी
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