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इसलिए इस अध्याय में जैन दर्शन और विज्ञान की दृष्टि से शारीरिक -रचना पर भी यत्किञ्चित् प्रकाश डाला गया है
जैन दृष्टि से सुख दुःख की अनुभूति का साधन तथा जो उत्पत्ति के समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता है, उसे शरीर कहते हैं। शरीर रचना के पीछे शरीर नामकर्म का उदय है। शरीर पांच है-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् और कार्मण। प्रत्येक की रचना भिन्न-भिन्न प्रकार के पुद्गलों से होती है। औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से बनता है, वैक्रिय शरीर विशिष्ट सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित संरचना है। इसी प्रकार आहारक, तैजस्
और कार्मण क्रमशः सूक्ष्मतर पुद्गलों से निर्मित होते हैं। चेतना विकास के अनुरूप शरीर की रचना होती है और शरीर रचना के अनुरूप चेतना की प्रवृति होती है।
आधुनिक शरीर-विज्ञान में शरीर-संरचना पर काफी अनुसंधानात्मक कार्य हुआ है। उसके आधार पर मानव शरीर की संरचना के मुख्य पांच स्तर माने गये हैं
(i) रासायनिक स्तर (ii) कोशिकीय स्तर (iii) ऊत्तकीय स्तर (iv) अंगीय स्तर (v) तंत्रीय स्तर
रासायनिक स्तर का सम्बन्ध प्रकृति में स्थित हाईड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन आदि रासायनिक तत्त्वों से है। कोशिका, ऊत्तक, अवयव, तंत्रिकातंत्र आदि के संदर्भ में प्रस्तुत अध्याय में यत्किञ्चित् प्रकाश डाला गया है।
शरीर विज्ञान की दृष्टि से हमारे सारे आवेश, वृत्तियां और वासनाएं अन्तःस्त्रावी ग्रंथितंत्र की अभिव्यक्तियां हैं। मनुष्य की सभी आदतों का उद्गम स्थल ग्रंथितंत्र है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक शैल्डन ने शरीर का वर्गीकरण तीन प्रकार से किया है(i) लम्बाकार (ii) गोलाकार (iii) आयताकार।
शरीर रचना के आधार पर मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व की व्याख्या की है। व्यक्तित्व विश्लेषण की दृष्टि से शैल्डन, क्रेश्मर, स्प्रेगर आदि मनोवैज्ञानिकों का नाम प्रमुख हैं।
जैन दृष्टि से व्यक्तित्व निर्माण में वंशानुक्रम, परिवेश, नाड़ीतंत्र-ग्रंथितंत्र के अलावा लेश्या, भाव और कर्म आदि घटकों की विशेष भूमिका हैं। आवेगों के कारण मानसिक
और शारीरिक क्रियाओं में परिवर्तन होता है। ग्रंथियों के स्राव भी मूल कारण नहीं। मूल कारण कार्मण शरीर हैं। इन सभी तथ्यों की सप्तम अध्याय में चर्चा की गई है।
अष्टम अध्याय में क्रिया और मन के संबंध पर विचार किया गया है। मन क्या है? मन का स्थान कहां है ? मन का कार्य क्या है ? मन और शरीर का क्या सम्बन्ध है ? मन
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