________________
क्रियाशीलता के द्वारा पुन: इस संतुलन को बनाये रखने का प्रयत्न करता है। यह प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। इसे ही विकासवादियों ने अस्तित्व के लिये संघर्ष कहा है। जैनदर्शन की भाषा में इसे संघर्ष की अपेक्षा समत्व का संस्थापन कहना अधिक उचित है जीवन का साध्य केवल समत्व का संस्थापन ही नहीं इससे भी आगे है। वह है आत्मपूर्णता की दिशा में प्रगति। आत्मपूर्णता का अर्थ है आत्मोपलब्धि। जैसे बीज वृक्ष रूप में प्रकट होता है वैसे आत्मा के निज गुणों का पूर्ण रूप से प्रकट होना ही मोक्ष है यही मानव जीवन का लक्ष्य है। उसे ही मोक्ष कहा गया है और उसका साधन अन्तक्रिया है। जिसका विवेचन पञ्चम अध्याय में किया गया है।
षष्ठम अध्याय का प्रतिपाद्य है क्रिया और परिणमन। जैन दर्शन में प्रत्येक पदार्थ अथवा अस्तित्व के साथ क्रिया का सम्बन्ध प्रारंभ से मान्य रहा है। क्रिया का सूक्ष्मतम और व्यापक रूप परिणमन है।
द्रव्य में दो प्रकार की क्रियाएं होती हैं- सूक्ष्म क्रिया और स्थूल क्रिया।
(i) प्रतिक्षण होने वाली क्रिया-सूक्ष्म क्रिया है। इसके अनुसार निरन्तर परिवर्तन होता है। वस्तु पहले क्षण में जो होती है वह दूसरे क्षण में नहीं होती, उसका नया रूप बन जाता है। इस परिणमन का नाम है-अर्थपर्याय। अर्थपर्याय आन्तरिक परिवर्तन है। अर्थपर्याय स्वाभाविक और एक समयवर्ती होने के कारण देखी नहीं जा सकती है, न व्यक्त की जा सकती है।
(ii) क्षण के अन्तराल से होने वाली क्रिया- स्थूल क्रिया है। इसे व्यंजन पर्याय कहा जा सकता है। दृष्टिगोचर और वचनगोचर होने वाला जितना भी परिणमन है वह व्यंजन पर्याय है। व्यंजन पर्याय स्थूल और दीर्घकालिक होती है। परिणमन के बिना पहले क्षण का द्रव्य दूसरे क्षण में अपने अस्तित्व को टिकाएं नहीं रख सकता। इसलिये दार्शनिक दृष्टि से परिणमन के सिद्धांत का अपना विशेष महत्त्व है।
प्रत्येक वस्तु में उत्पाद-व्यय का क्रम चलता रहता है। पूर्व अवस्था का विनाश और उत्तर अवस्था की उत्पत्ति का नाम परिणमन है। जीव सदा जीव रूप में और अजीव सदा अजीव रूप में परिणमन कर रहा है। परिणमन की इस मर्यादा का कभी भी अतिक्रमण नहीं होता।
सप्तम अध्याय में जैन दर्शन तथा विज्ञान में शारीरिक क्रियाओं का अध्ययन है। शारीरिक-रचना भी विभिन्न प्रकार की शारीरिक क्रियाओं के लिए जिम्मेदार होती है।
XXXVIII