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के कितने प्रकार हैं? मानसिक विकास की भूमिकाएं कौनसी हैं ? मन और संवेग का पारस्परिक संबंध क्या है ? इत्यादि विषयों का अध्ययन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है।
जैन तत्त्व-मीमांसा के अनुसार विश्व के मूल में दो तत्त्व क्रियाशील हैं - जड़ और चेतन। आश्रव, पुण्य-पाप, संवर आदि इन्हीं दो तत्त्वों की विभिन्न अवस्थाएं हैं। वस्तुतः शुद्ध आत्मा बंधन का कारण नहीं बनती और न ही कषाय के अभाव में कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया दीर्घकालिक कर्म-बंधन का हेतु बनती हैं। तात्पर्य, बंधन के मूल कारण राग-द्वेष और मोह हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी चैतन्य के गहरे स्तर पर चलने वाली अज्ञात प्रक्रियाओं में मन के मौलिक आधारों को खोज रहा है। उसके अनुसार मौलिक मनोवृत्तियां, संवेग, संवेद आदि के पीछे रहस्यमयी प्रक्रियाएं काम कर रही हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी मूल आशय राग, द्वेष, क्रोध,लोभ, भय आदि हैं। किन्तु ये निरन्तर प्रभावी नहीं रहते। जब - जब व्यक्ति निषेधात्मक भावों में जाता है इनका प्रभाव पड़ता है। स्मृति, कल्पना आदि मन के ही कार्य हैं। मन के दो प्रकार हैव्यक्त और अव्यक्त। जैनदर्शन की भाषा में इन्हें क्रमश:द्रव्यमन और भावमन कहा जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इन्हें ज्ञात और अज्ञात मन कहा है। व्यक्ति का अज्ञात एवं अव्यक्त मन ही चित्त है। अज्ञात मन ही स्थूल व्यक्तित्व का नियामक होता है। मनोविज्ञान में अनेक प्रवृत्तियों की व्याख्या अचेतन मन के आधार पर की गई है। अचेतन मन संस्कारों का पुंज है। ये संस्कार ही चित्त का निर्माण करते हैं। आहार, मैथुन, परिग्रह, लोभ आदि सारी वृत्तियां और संज्ञाएं संस्कार या अध्यवसाय से ही जन्म लेती हैं।
क्रिया का सिद्धांत अत्यन्त सूक्ष्म और गहन है। क्रिया शब्द के विभिन्न अर्थों की मीमांसा के पश्चात् मूल पारिभाषिक रूप में प्रयुक्त क्रिया-चेतना की सूक्ष्म स्पंदनात्मक क्रिया का विवेचन यहां इष्ट है। मनोविज्ञान, शरीर-विज्ञान आदि के संदर्भ में संक्षिप्त तुलनात्मक विश्लेषण का भी विनम्र प्रयास प्रस्तुत शोध प्रबंध में किया गया है।'
जीवन एक यात्रा है। जन्म के साथ ही जीवन की यात्रा प्रारंभ हो जाती है। यात्रा के हर पड़ाव पर क्रिया का दस्तावेज है। क्रिया से अक्रिया की ओर बढ़ना स्व-संबोध के द्वार पर एक सही दस्तक है। संबोध की पूर्व सीढ़ी है-जिज्ञासा। जिज्ञासा और संबोध ही व्यक्ति को सत्य का सान्निध्य और सामीप्य देता है।
सत्य संबोध के दो चरण हैं - 1. कर्म से अकर्म की ओर जाना 2. अस्तित्व में रमण। शरीर और मन के पार चले जाने पर जीवन का गहन सत्य हमारी चेतना में उतरता
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