________________ 37 ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्दं सहन्ते मृगास्तोयाऽऽधारपथाश्च वल्कलशिखानिष्यन्दरेखाऽङ्किताः // 14 // न च शबरादिवसतिष्पवि सम्भवेदेवमत आह-विश्वासेति / कचित्प्रदेशे च-विश्वासस्योपगमस्तस्मात्-विश्वासोपगमात् = विश्वासलाभात् / जातविश्वासाः / अय एव-अभिन्ना गतियेषान्ते-अभिन्नगतयः = निर्भयगतयः, अत्यक्तसुखासिकाः, मृगाः = हरिणाः, शब्दं = रथशब्द, सहन्ते = सधैर्य शृण्वन्ति / ततोऽपि न पलायन्ते इत्याशयः / न हि ब्याधपल्लीषु किलैवं सम्भाव्यते इति भावः / न च गृह्यमृगेष्वप्येवं सम्भाव्यत एवेत्यत आह-तोयेति / तोयानामाधारास्तेषां पन्यानः तायधारपथाः = जलाशयमार्गाः, वल्कलानां शिखास्तासां निष्यन्दास्तेभ्यो या रेखास्ताभिरङ्किताः-वल्कलशिखानिष्यन्दरेखाङ्किताः = वल्कलाग्रपरिखतजलधारारेखाविभूषिताः। अचिरस्नातमुनिजन-वृक्षत्वम्यस्त्र-दशास्रतवारिकणाङ्कितसै कतभूभागाः। अत्रापि 'कचित्-दृश्यन्ते' इति योजनीयम् / [वृत्ति-श्रुत्यनुप्रासौ, क्रियासमुच्चयः, काव्यलिङ्गञ्चालंकाराः] // 14 // चिकने दिखाई दे रहे हैं / और देखो, ये मृग भी अत्यन्त विश्वस्त भाव से, निडर होकर, मनुष्यों के गमन आगमन के शब्दों को ( आहट को ) सहन करते हैं / अर्थात् मनुष्यों को देखकर भागते नहीं हैं। और जलाशयों के मार्ग भी मुनियों के पहिरने के वल्कल के वस्त्रों के छोर से टपकते ( झरते ) हुए जल की रेखाओं से अङ्कित हो रहे हैं। भावार्थ-नोवारधान्य मुनियों को भोज्य पदार्थ हैं, जो यहाँ वृक्षों के पास सुग्गा व पक्षियों के घोसलों के नीचे इधर-उधर बिखरा हुआ दिखाई दे रहा है। और आश्रमस्थ मुनिलोग इंगुदी के फलों को पीसकर उससे तैल निकाल कर तैल का काम लेते हैं और यहाँ पर जगह 2 इंगुदी (गूंदी ) के फल पिसने से चिकने हुए पत्थर इधर उधर पड़े हुए दिखाई दे रहे हैं। और यहाँ के मृग, पक्षी आदि मनुष्यों के शब्दों ( आहट ) से भी डर कर भागते नहीं है। और स्नान करके आने वाले ऋषि मुनिगणों के बल्कल के ( वृक्ष की छाल से बने ) वस्त्रों से टपकते हुए जलकी रेखाएँ जलाशयों ( नदी, कूप, वापी आदि ) के मार्गों पर स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। इससे स्पष्ट मालूम होता है, कि-अब हम लोग आश्रम के आभोग (हद, सीमा) में पहुंच गए हैं // 14 //