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१) आर्तध्यान = चिंताग्रस्त स्थिति पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ६ गुणस्थानों पर अपनी सत्ता रखता है । १ ले का मालिक तो मिथ्यात्वी नास्तिक ही है। ४ थे का सम्यग् दृष्टि श्रद्धालु है, ५ वे का देशविरतिधर व्रत पच्चक्खाणवाला व्रती-तपस्वी है। लेकिन आखिर तो गृहस्थी घरबारी है। अतः चिन्ताजनकता तो बनी ही रहती है । इसलिए गृहस्थी आर्तध्यानी हो इसमें आश्चर्य नहीं है। लेकिन छठे गुणस्थान का मालिक साधु भी यदि आर्तध्यान करता है तो दुःखद स्थिति है। लेकिन... साधु जो त्यागी-तपस्वी है वह क्यों आर्तध्यानी बनता है ? उसके लिए प्रमुख कारण प्रमाद और कषाय के बंध हेतु की स्थिति कारणरूप है । आहार-उपधि आदि का परिग्रह बढ़ने के कारण तथा मनोगत प्रमादग्रस्तता बढने के कारण कषाय की वृत्ति भी बढ़ जाए तो आर्तध्यान साधु भी कर लेता है । अतः आर्तध्यान का आधिपत्य छट्टे गुणस्थान तक फैला हुआ है।
रौद्रध्यान की सत्ता १ ले से ५ वे गुणस्थान तक बताई है तत्त्वार्थकार ने । १ ला गुणस्थान तो है ही मिथ्यात्व का, अतः मिथ्यात्व के साथ उसके परम मित्ररूप में— जो अनन्तानुबंधी कषाय आदि हाजिर रहते हैं, वहाँ तो रौद्रध्यान को आमंत्रण देने की आवश्यकता ही नहीं रहती। स्वयं अपने आप आ ही जाता है। लेकिन ४ थे गुणस्थान पर जहाँ जीव सम्यग् दृष्टि श्रद्धालु बन जाता है, देव-गुरु-धर्म की प्रबल श्रद्धा धारण कर भी लेता है लेकिन गृहस्थी–घरबारी होने के नाते कभी कभी कलह के निमित्त रौद्रध्यान में डूब भी जाता है । और ५ वे गुणस्थान का मालिक देशविरतिधर श्रावक जो व्रती है, तपस्वी भी है फिर भी गृहस्थी होने के कारण पुत्र-पत्नी के मोहवश, राग-द्वेष कषायादि के वश बनकर रौद्रध्यान कर भी लेता है । यद्यपि अपने आप को फिर सम्भाल पाता होगा लेकिन एकबार तो रौद्रध्यान का भागीदार बन जाता है। वैसे अनिवार्यता तो नहीं है फिर भी कर लेता है। ..
साधु छटे गुणस्थान का स्वामी जिसने गृहस्थाश्रम का सर्वथा त्याग कर दिया है तथा रौद्रध्यान के निमित्त धन-स्त्री-पुत्र-पत्नी-धन-संपत्ति आदि का आजीवन के लिए सर्वथा-संपूर्ण त्याग (छोड) ही कर दिया है। दूसरी तरफ प्राणातिपात विरमण महाव्रत आदि पाँच महाव्रत धारण कर लिये हैं । अतः पूर्ण-संपूर्ण-अहिंसा-सत्य का आचरण करता है । हिंसा-झूठ-चोरी आदि सर्वथा सेवन न करने की मृत्यु की अन्तिम श्वास पर्यन्त–तक भीष्म प्रतिज्ञा का पालन करते हुए जो महाव्रतों का पालन कर रहा है ऐसे साधु को प्रमाद का सेवन होते हुए भी रौद्रध्यान का तो संभव ही नहीं है । अतः छठे १०१४
आध्यात्मिक विकास यात्रा