Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 488
________________ तत्त्व का सहयोग लेकर उपासना करनी चाहिए। जिससे साधक जीव अपनी कर्म निर्जरा कर सकता है। इस तरह आर्हत् दर्शन में 'मोक्ष' यह सत् भूत पदार्थ है। इसका अस्तित्व बरोबर स्वीकारा है । जीवों की कक्षा मोक्ष की मान्यता पर निर्भर करती है। जैसे कि मोक्ष को माने, मोक्षप्राप्ति को माने, मोक्ष के अस्तित्व को माने, मोक्षप्राप्ति कारक मोक्षमार्ग रूप धर्मादि के स्वरूप को माने तो ही वह भव्य कक्षा का जीव कहलाता है, और तो ही वह मुक्ति को पाने का अधिकारी कहलाता है । और ठीक इससे विपरीत यदि मोक्ष और इसके अस्तित्व और प्राप्ति के उपायादि किसी भी प्रकार की मोक्ष की अवस्था, व्यवस्था को सर्वथा न मानने के कारण ऐसी नकारात्मक या निषेधात्मक वृत्ति, दृष्टि-मति जो रखता है वह अभव्य की कक्षा का जीव कहलाता है । अतः भव्य होना या अभव्य होना या जातिभव्य या दुर्भव्य होना यह किसी कर्मप्रकृतिजन्य कर्मकारणिक स्वरूप नहीं है। सिर्फ मोक्ष आश्रित मान्यता पर ही निर्भर करता है। आखिर मोक्ष क्यों नहीं मानना? क्या मोक्ष न मानें और आत्मा को मानें तो चलेगा? क्या वह पूर्ण दर्शन कहलाएगा? जी नहीं। आखिर मोक्ष स्वतंत्र कोई द्रव्य या पदार्थ नहीं है। द्रव्य-पदार्थ तो चेतन-आत्मा ही है। बस, इसीकी अवस्था मोक्ष है। कर्मसंसक्त कर्माधीन अवस्था संसारी है, और कर्मरहित अवस्था ही मोक्ष है। सीधी सी बात है कि यदि आप कर्मसहित की संसारी अवस्था मान सकते हो तो फिर कर्मरहित अवस्था का स्वरूप मानने के लिए क्यों हिचकिचाना चाहिए? आखिर कर्म तो पौद्गलिक है, पुद्गल जड पदार्थ के परमाणु रूप है । इस पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड रूप वर्गणा के दो भिन्न-भिन्न आठ स्वरूप हैं उनमें से ७ प्रकार के परमाणु स्वरूप को आप मानो, जानो, स्वीकारो और मात्र कर्म के ही स्वरूप को नहीं ? तो क्यों? जैसे शब्द-भाषा वर्गणा के पुद्गल परमाणु मात्र है, श्वास, शरीर के, मन के इन सबके जड पुद्गल परमाणु है, उनको मानने जानने में कहीं तकलीफ नहीं आती है तो फिर कर्म को मानने में क्या तकलीफ है? कर्म जैन परिभाषा में पौद्गलिक है । जडरूप है । आत्मप्रदेशों पर लगते हैं उस दिन बंध होता है । और ये ही सभी कर्म आत्मा पर आवरण रूप से मौजूद रहे इस अवस्थाविशेष को कर्म कहते हैं । इस कर्मावरणग्रस्त अवस्थाविशेष को संसारी अवस्था कहते हैं । तथा इसी पौद्गलिक कर्म तो जैसे बाहर से आया है वैसे ही बाहर चला भी जाएगा। धर्माराधना के प्रबल पुरुषार्थ विशेष से । इस तरह समस्त संपूर्ण कर्मावरण के निकल जाने अर्थात् क्षय हो जाने से जो आत्मा निरावरण हो जाय... इस निरावरण की अवस्था विशेष को ही मोक्ष कहते हैं। इसलिए जब कर्मबद्ध अवस्था को मान लेते हो, उसे मानने में कहीं बाधा नहीं आती है तो १४४४ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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