Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 521
________________ अज्ञान का अभाव है। केवलज्ञान परिपूर्ण संपूर्ण है। अदर्शन का अभाव है। केवलदर्शन परिपूर्ण संपूर्ण है। राग-द्वेष का अभाव है। सर्वथा वीतराग भाव में सदा है। दानादि लब्धियाँ अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यादि सभी लब्धियाँ पूर्ण हैं। नाम-रूप-रंग-आकार-प्रकार का सिद्ध अनामी, अरूपी, निरंजन, अभाव है। निराकार ही होते हैं। इस तरह संसारी सर्व अवस्थाओं का अभाव सिद्धों में रहेगा और सिद्धों की अपनी भावात्मकता अवश्य ही उनमें विद्यमान रहती है। यदि संसारी जीवों के साथ सिद्धों की तुलना करें तो स्पष्ट होगा कि जो सिद्धों में है वह संसारी में नहीं है और जो संसारी में होता है वह सिद्धों में नहीं होता है। संसारी सिद्ध संसारी-शरीरधारी-सशरीरी होता है। सिद्ध बिना शरीर के अशरीरी होते हैं। संसारी के इन्द्रियाँ, मनादि प्राण होते हैं। सिद्ध के इन्द्रियाँ, प्राण, मन कुछ भी नहीं। संसारी की उत्पत्ति-जन्म-मरण होता है । सिद्ध की उत्पत्ति-जन्म-मरण कुछ भी नहीं। संसारी का आयुष्य सीमित होता है। संसारी की गति-अगति होती है। सिद्धों का आयुष्य होता ही नहीं है। अतः अक्षय स्थिति होती है। सिद्धों की गति-अगति कुछ भी नहीं। सिद्धों की अनन्तकालीन स्थिति होती संसारी स्थिति मर्यादित होती है। संसारी सकर्मी-कर्मसहित होते हैं। सिद्ध सर्वथा कर्मरहित-अकर्मी होते संसारी अज्ञानी, अल्पज्ञानी होता है। संसारी अदर्शनी-अल्पदर्शनी होता है। संसारी राग-द्वेषादिवाले होते हैं। सिद्ध का ज्ञान अनन्त ज्ञान होता है। सिद्ध अनन्त दर्शन गुणवान् होते हैं। सिद्ध सर्वथा वीतरागी होते हैं। विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४७७

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