Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 532
________________ या ... मेरी क्या स्थिति है ? कैसी परिस्थिति है ? ४ थे गुणस्थान पर घडी के लोलक की तरह क्या मेरी स्थिति डामाडोल है ? क्या मैं ४ थे गुणस्थान से नीचे गिरते हुए ३ रे, रे पर से गिरता हुआ नीचे जा रहा हूँ? क्या मैं वापिस मिथ्यात्व के गर्त में गिर रहा हूँ ? अपनी अध्यवसाय धारा को संभाल पा रहा हूँ? क्या मैं ऊपर उठते हुए पाँचवे गुणस्थान पर जा रहा हूँ ? श्रावक जीवन योग्य व्रतादि मेरे में आए कि नहीं ? क्या मैं शुद्ध श्रावक बना कि नहीं ? अब यहाँ भी देखिए... क्या मैं यहाँ स्थिर हूँ या नहीं ? या क्या यहाँ भी विचलित हूँ ? अस्थिर हूँ ? मेरी मनःस्थिति कैसी बनी हुई है ? मानसिक अध्यवसाय की धारा फिर गिर रही है कि ऊपर चढ रही है ? साधु संतों का सत्संग करके . संत समागम से मैं मेरा विकास साध रहा हूँ या नहीं ? अरे ! मन को भी साधने का, वश करने का मैंने पुरुषार्थ किया या नहीं ? राग-द्वेष पर नियंत्रण किया कि नहीं ? कुछ कम किये कि नहीं ? बचे हुए और पापों से भी निवृत्त होने की तैयारी है या नहीं ? क्या मैं सर्व संग परित्याग करके साधु बन सकता हूँ या नहीं ? क्या आजीवन पर्यन्त ... अरे ! मृत्यु की अन्तिम श्वास पर्यन्त मैं एक भी पाप न करने की भीष्म प्रतिज्ञा करने के लिए तैयार हूँ या नहीं ? तो क्या मैं छट्ठे गुणस्थान पर आरूढ होने के लिए तैयार हूँ ? अंतर मन क्या कहता है ? भाव से या द्रव्य से ... ? • ओ हो ! मैं साधु बन गया हूँ ? अब तो छट्ठे गुणस्थान का मालिक हूँ ? यहाँ मेरा मन कैसा है ? अब मानसिक रूप आर्त- रौद्र ध्यान की परिणति तो नहीं है ? मैं प्रमाद ग्रस्त हूँ ? या अप्रमत्त ? राग- - द्वेष से परे हूँ ? या लिपटा हुआ हूँ ? आत्मभाव की जागृति कितनी आई ? स्वभावरमणता बढी कि नहीं ? विभाव दशा से मन हटा कि नहीं ? अप्रमत्त बनकर आत्मगुणों का रसास्वाद किया कि नहीं ? आगे फिर ७ वे से ८ वे गुणस्थान विषयक चिन्तन की धारा है। श्रेणी की बात आएगी । इस तरह चिन्तन करते हुए मनोमंथन करते हुए आत्मनिरीक्षण करते रहिए... आगे ... आगे... रास्ता खुलता जाएगा । १४८८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

Loading...

Page Navigation
1 ... 530 531 532 533 534