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है। इस स्थूलावस्था में एक शरीर में अनन्त जीवों का अस्तित्व विद्यमान रहता है । अतः स्पर्श भी न करना, न भक्षण करना, न मारना।
आत्मा तो अदृश्य है, अरूपी आदि होने से । आत्मा की उत्पत्ति का व्यवहार हो ही नहीं सकता है। मात्र शरीर की उत्पत्ति के व्यवहार से ही उत्पत्ति मानी है। सूक्ष्म निगोदावस्था तो अदृश्य है । अतः वहाँ की उत्पत्ति आदि का व्यवहार ख्याल में भी नहीं आ सकता है। जबकि स्थूल निगोदावस्था की उत्पत्ति-अंकूरा, फुलन, आदि की उत्पत्ति दृष्टिगोचर तो होती ही है । अतः संसार के व्यवहार में उत्पत्ति की प्रथम शुरुआत यहाँ से मानकर करनी चाहिए। इस तरह प्रस्तुत पुस्तक में निगोद की प्रथमावस्था से लेकर क्रमशः आत्मा का उत्थान कैसे होता है ? कैसे आत्मा का क्रमिक विकास होता है ? किस क्रम से आत्मा ऊपर उठती है? विकास के सोपानों पर चढते-चढते कैसे मोक्ष की दिशा में प्रयाण करती है ? संसार के चक्र में घूमती-परिभ्रमण करती रहती है ? कब मोक्ष की सही दिशा में सीधी पटरी पर आरूढ होती है ? और मोक्ष मार्ग पर कैसे अग्रसर होती है? इत्यादि का वर्णन किया है। कर्मों का आश्रव कैसे रोकना? संवर करके पापों से कर्मों से बचना कैसे और फिर कर्मों की निर्जरा कैसे करनी इत्यादि विचारणा की है । ऐसी स्थिति में आत्मा किन-किन गुणस्थानों पर आरूढ होकर किस-किस अवस्था को प्राप्त होती है इत्यादि का विवेचन किया है । ८४ लक्ष जीवयोनियों में परिभ्रमण कर अन्त में. .. मनुष्यगति में कैसे जीव आता है ? फिर मिथ्यात्व को कैसे छोडना और सम्यग् दर्शन कैसे प्राप्त करना की प्रक्रिया दर्शायी है।
सम्यक्त्वी श्रद्धालु श्रावक से व्रती कैसे बनना? व्रतधारी के इस ५ वे गुणस्थान पर श्रावक का जीवन, श्रावक के आचार-विचार-व्रतादि की विचारणा करके फिर आगे के छठेढे सोपान पर साधु बनने की प्रक्रिया बताई है। साधु का स्वरूप-आचार-विचार-व्यवहार-कर्तव्यादि समझने के लिए विस्तार भी किया है। उसके बाद अप्रमत्त कैसे बनना? ध्यानादि की साधना का सहयोग कितना उपयोगी है ? जिससे अप्रमत्त बना जाता है यह समझाकर...८ वे गुणस्थान पर प्रवेश कराया है । यहाँ से श्रेणी प्रारम्भ होती है । श्रेणी के स्वरूप की विचारणा की है। दो श्रेणियों में भी क्षपक श्रेणी तो... मोक्षपुरी का प्रथम प्रवेश द्वार है । यहीं से प्रवेश करके मोक्ष की तरफ आगे प्रयाण संभव है। बस, क्षपक श्रेणी में प्रवेश किया कि आगे मुक्तिपुरी के दर्शन होने लग जाते हैं । फिर तो तैयारी बडी तेजी से करनी चाहिए। इस तरह की तैयारी में... और तो कुछ नहीं लेकिन कर्मक्षय ही करना है । उसके लिए ध्यानादि की उत्कृष्ट कक्षा की साधना
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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