Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 519
________________ भी अभाव हो जाएगा। फिर मोक्ष किसका, ऐसी स्थिति में तो नैयायिक-वैशेषिक दर्शन भी बौद्ध जैसे अभावात्मक मुक्ति माननेवाले हो जाएंगे। या फिर ज्ञानरहित जो सभी जड पदार्थ हैं उनकी भी मुक्ति माननी पडेगी । यह आपत्ति आएगी। तब दोनों दर्शनवाले क्या जवाब देंगे? तो फिर जडरूप मुक्ति मानने का क्या अर्थ रहेगा? तो फिर किसका? किसको? यह कैसा हास्यास्पद तमाशा है मुक्ति को जड रूप मानने का? यह बात किसी भी स्थिति में गले नहीं उतर सकती है । निरर्थक प्रलाप मात्र है । अतः यह मत भी ग्राह्य नहीं बन सकता। तथा आत्मा को मात्र सर्वव्यापी-विभू अवस्था में ही मुक्त माने, यह मत भी उचित नहीं है । “सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगी विभुः।” संसार के सभी मूर्त द्रव्यों का संयोग करनेवाला सर्वलोकव्यापी विभु आत्मा मुक्तात्मा है । यह पक्ष कैसे सिद्ध होगा? आत्मा सदाकाल विभु-व्यापक रहती ही नहीं है । और मात्र समग्र विश्व की एक ही आत्मा भी नहीं है। सभी अनन्त आत्माएँ स्वतंत्र हैं। भिन्न-भिन्न देहधारी हैं। और स्वतंत्र रूप से सुख-दुःख भोगती हैं। अतः स्वतंत्रावस्था में समग्र लोक की एक ही आत्मा मानकर मुक्ति मानना कहाँ तक उचित है? दूसरे वेदान्ती जो मोक्ष मानकर भी पुनः पुनः संसार में आना, जन्मादि धारण करना और वापिस मोक्ष में जाना आदि मानते हैं यह पक्ष भी सर्वथा दोषदूषित है । असंगत है। इसकी विचारणा पहले की है। वहाँ से समझिए। संसार के जन्म-मरण के जैसे ही. जन्म-मरण यदि मानने ही हों तो फिर मोक्ष क्यों कहना? क्या संसार को ही मोक्ष कह दें? यह मत भी सत्यता की कसोटी पर टिक ही नहीं सकता है। अब जो मोक्ष को केवल पुद्गलानन्दी मानते हैं विषयसुखात्मक ही मानते हैं ऐसे बिचारे नास्तिकों के विषय में क्या कहें ? जिनको आत्मस्वरूप का भान ही नहीं हैं, वे बिचारे दया पात्र हैं । मोक्ष मानने कहने की पंक्ति में खडे रहने का भी उनको अधिकार नहीं है । मदिरा के नशे में वे यहीं पडे रहे और मुक्ति के बारे में प्रलाप ही न करे यही ठीक है। इस तरह अत्यन्ताभावरूप मुक्ति नहीं। जडरूप भी नहीं। आकाश की तरह सर्वव्यापी भी नहीं । व्यावृत्ति को धारण करनेवाली भी मुक्ति नहीं और न ही विषयसुखमयी मुक्ति है । ये सभी मत अनादेय हैं । अतः सद्रूपात्मप्रसत्ति से ज्ञान-दर्शनादि गुणसमूह से निःसीम अतीन्द्रियानन्द के धामस्वरूप निपात रहित सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा ने जो मुक्ति बताई है वही शुद्ध स्वरूप ग्राह्य है । अप्रतिपाती और आत्मीय सहज स्वभावस्थान रूप विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४७५

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