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संयोगाभाव कह दें। कोई ना नहीं है। लेकिन स्वतंत्र रूप से दोनों पदार्थों की सत्ता- विद्यमानता त्रैकालिक मानी ही गई है । अर्थात् अभवी तीनों काल में है ही । और मोक्ष भी तीनों काल में विद्यमान है । अभवीपना पारिणामिक भाव जन्य है । इसलिए कृत्रिम नहीं है | वास्तविक सत्तारूप है । और मोक्ष भी वास्तव में है ही । मात्र संयोगाभाव है । अभवी का मोक्ष नहीं है । अभवी के लिए मोक्ष नहीं है । अर्थात् भवी भव्य जीव के लिए मोक्ष जरूर है ही । यह त्रैकालिक अस्तित्व एवं सत्तासूचक शक्य प्रयोग है ।
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इस तरह अभाव भी एक ऐसा प्रमाण है कि जिससे पदार्थ की भावात्मकता सिद्ध हो जाती है । जिसका अर्थात् जिस द्रव्य पदार्थ का सर्वथा त्रैकालिक अभाव सिद्ध करना चाहते थे... उसी की सिद्धि होती जाती है । अतः अभाव द्रव्य का नहीं परन्तु पर्यायावस्था रूप सिद्ध हो जाता है ।
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बौद्ध दर्शन जो कि मोक्ष की अभावात्मकता त्रैकालिक सिद्ध करता है वह सर्वथा अनुचित ही है । मोक्ष भावात्मक सत्तारूप तत्त्व है । यह द्रव्यस्वरूप नहीं अपितु पर्यायस्वरूप है । मूलभूत द्रव्य तो आत्मा ही है । आत्मा की शुद्ध निरावरण- कर्म रहित पर्यायावस्था को ही मोक्ष कहा है। अतः इसे अभावात्मक कहना सबसे बडी मूर्खता - अज्ञानता होगी । मोक्ष है जरूर । मोक्ष का अभाव नहीं है । परन्तु मोक्ष में किसका किसका अभाव है ? यह समझने के लिए संसारी अवस्था की अपेक्षा से विचार करना पडेगा। तभी मोक्ष में उस संसारी चीजों का अभाव जरूर सिद्ध होगा। यह भी संयोगिक सत्ता का भाव होगा ।
नात्यन्ताभावरूपा न च जडिममयी, व्योमवद्वापिनी नो न व्यावृत्तिं दधाना, विषयसुखघना, नेष्यते सर्वविद्भिः । सद्रूपात्मप्रसादाद् दृगवगमगुणौघेन संसारसारा निःसीमाऽत्यक्षसौख्योदयवसतिरनि: पातिनी मुक्तिरुक्ता ॥
गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार महर्षि पू. रत्नशेखर सूरि म. ग्रन्थ के अन्त में बडे खेद की बात व्यक्त करते हुए कहते हैं— ऐसी श्रेष्ठ मुक्ति को भी भिन्न-भिन्न दर्शनकारों ने कैसी विकृत कर दी है ? जो मोक्ष का स्वरूप समझ ही नहीं पाए उन दर्शनों ने मोक्षविषयक मान्यता कैसी कैसी कर दी है ? जैसे कि... बौद्ध मतावलम्बी मोक्ष को अत्यन्ताभाव रूप मानते हैं । नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शनवाले ज्ञानाभावरूप मोक्ष का स्वरूप मानते हैं । नूतनपंथी दयानन्द के अनुयायी तथा वैदिकमतावलम्बी अवतारवाद की प्रक्रिया में मोक्ष
विकास का अन्त "सिटल की पानि "
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