Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 525
________________ स्वरूपवाला है। सर्वज्ञ को समस्त लोकालोक के अनन्तानन्त पदार्थों, गुणों, पर्यायों के होनेवाले ज्ञान-दर्शन को भी रोक नहीं सकता । तथा स्वभावरमणता, अपने ही स्वगुणों की रमणता करने में भी बीच में कोई बाधा–पीडा-अन्तराय पहुँचाकर रोक नहीं सकता है । अनन्त चारित्र गुणवाले सिद्ध भगवान स्वगुणों में रमणता करते हुए उनका ही उपभोग करते हुए उनमें सदा लीन रहते हैं। इसमें भी बाधा–अन्तराय पहुँचाकर कोई रोक नहीं सकता है। अतः अव्याबाध-चारित्र है। लब्धियाँ, ज्ञानादि गुण तथा सुखादि सब अव्याबाध की कक्षा के हैं । ऐसे सिद्ध हैं। ७) अपुणरावित्ति- अपुनरावृत्ति-पुनः आवृत्ति = आगमन हो ऐसे अभाववाले सिद्ध हैं । अ अक्षर सब में अभाव सूचक है । अतः 'अ' अक्षर लगने पर मूल शब्द का विपरीत अर्थ अभिप्रेत है । संसार में कर्मादि कारणवश जीवों की पुनः आवृत्ति-आगमन होता है । जबकि मोक्ष में एक बार चले जाने के पश्चात् पुनः कभी भी आवृत्ति-आगमन अर्थात् संसार में वापिस आना होता ही नहीं है । क्यों कि वहाँ कारणभूत कर्म है ही नहीं। अतः पुनः संसार में आने का सवाल ही खडा नहीं होता है। जैसा कि वेदान्त मतावलम्बी हिन्दु धर्मी मानते हैं कि भगवान अवतार लेकर वापिस संसार में आएंगे, लीला करेंगे, और अधर्म का नाश, धर्म का अभ्युत्थान, दुर्जनों का नाश, सज्जनों का उद्धार आदि सब कुछ करेंगे। इस मान्यता का खण्डन करते हुए कुछ लिखा है । ऐसी मान्यता का खण्डन करने के लिए नमुत्थुणसूत्र में “अपुणरावित्ति" विशेषण दिया गया है । इससे ऐसा सिद्धान्त स्पष्ट कर दिया है कि मोक्ष में जाने के पश्चात् कर्मरहित सिद्धात्मा पुनः कभी भी-कदापि संसार में आती ही नहीं है । अनन्तकाल में भी संभव नहीं है। ८) सिद्धिगई- सिद्धिगति शुभनामवाले ऐसे स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही सर्वोत्तम है । अन्य गतियाँ संसार की गतियाँ हैं । देव-मनुष्य–तिर्यंच और नरक इन चारों गतियों में अतिव्याप्ति न हो जाय अतःउनका परिहार करने के लिए..."सिद्धिगई" विशेषण युक्तियुक्त ही है। अन्य गतियाँ उपरोक्त सातों विशेषणों के अर्थवाली नहीं है। क्योंकि ये चारों गतियाँ तो संसार परिभ्रमणवाली, परिभ्रमणकारक गतियाँ हैं । जबकि इन चारों से सर्वथा विपरीत अलग ही प्रकार की जो गति उपरोक्त सातों विशेषणों से वाच्य होने वाली होने योग्य है वह है सिद्धि गति । या इसे पंचम गति नाम देकर भी संबोधित की है । ऐसी सिद्धिगति को प्राप्त कर चुके–जिनेश्वर परमात्मा को “नमो जिणाणं” पद से नमस्कार किया है । और तीनों काल के सिद्धों को नमस्कार किया है। विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति" १४८१

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