Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 523
________________ संसारी के चलना-फिरना, गति - प्रगति, प्रवृत्ति रहती है । संसारी सक्रिय - क्रियाशील रहते हैं । सिद्धों के लिए अशरीरी होने से सदा एक ही स्थान पर स्थिरता रहती है। सिद्ध सदा निष्क्रिय - क्रियारहित होते हैं । सिद्ध सदा सभी समान होते हैं । संसारी सभी परस्पर विषम होते हैं । इस तरह अनेक दृष्टियों से... संसारी और सिद्ध में अन्तर है । प्रत्येक बात में संसारी से सिद्ध विपरीत भाववाले ही हैं लेकिन फिर भी सिद्ध स्वगुणों से, स्वस्वरूप से भावात्मक है | अतः संसारी अवस्थाओं की अभावात्मकता और सिद्ध स्वरूप की भावात्मकतावाले सिद्ध हैं । अतः सिद्धों को एकान्त अभावात्मक ही कहना सबसे बडी अज्ञानता - मूर्खता होगी । स्याद्वाद की दृष्टि से “ भावाभावात्मकता" कहने से संसार की अपेक्षा से अभावात्मकता और सिद्ध स्वरूप से उनकी भावात्मकता सिद्ध होती है । अतः उभयस्वरूपी सिद्ध स्याद्वाद - सापेक्षवाद की दृष्टि से बरोबर सिद्ध होते हैं । यह जैन दर्शन की - सर्वज्ञ दर्शन की विशेषता है। बौद्धदर्शन की अज्ञानमूलक अभावात्मकता या शून्यात्मकतादि सर्वज्ञ दर्शनी जैन कभी भी नहीं स्वीकारते । अतः मोक्ष निर्वाण अभावात्मक नहीं शून्यात्मक नहीं सत् भूत विद्यमान है। भावात्मक है । असत् नहीं सत् है। 1 नमुत्थूणं सूत्र की संपदा का अर्थ “सिवमयलमरुहमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति सिद्धिगईनामधेयं ठाणं संपत्ताण 1 शक्रेन्द्र द्वारा बनाया गया यह सूत्र अर्धमागधि (प्राकृत) भाषा में है । इसमें सन्धि होने से सभी शब्द समास के रूप में मिले जुले हैं । अतः सन्धि तोडकर अलग-अलग शब्द रचना इस प्रकार होगी — “सिवं + अयलं + अरुहं + अनंत + अक्खयं + अव्वाबाहं + अपुणरावित्ति + सिद्धिगई नामधेयं ठाणं संपत्ताणं” । इसकी संस्कृत छाया इस प्रकार है - १) शिवं + २) अचलं, + ३) अरुहं + ४) अनन्तं + ५ ) अक्षयं + ६) अव्याबाधं + ७) अपुनरावृत्ति + ८) सिद्धिगति नामधेयं स्थानं सम्प्राप्तानां .... . इस तरह ८ विशेषणों द्वारा सिद्धिगति - मोक्ष का अत्यन्त संक्षेप में वर्णन किया है । सिद्धिगति या सिद्ध जीव कैसे हैं? उनका स्वरूप कैसा है ? यह इन प्रयुक्त ८ विशेषणों से जानना विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति” १४७९

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