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चाहिए । “ललितविस्तरा " ग्रन्थ में अद्भुत वर्णन किया गया है। परन्तु ग्रन्थविस्तार भय से यहाँ देना उचित नहीं समझता हूँ। फिर भी संक्षेप में अल्पांश मात्र यहाँ लिखता हूँ ।
१) सिव- मोक्ष शिवात्मक कल्याणात्मक है ।
२) अयल - मोक्ष अचल स्थान है । सिद्धशिला पर मोक्ष में लोकान्त भाग में पहुँचे हुए सिद्ध कभी भी चलायमान नहीं होते हैं । एक बार मोक्ष में आते समय लोकान्त - लोकाग्र भाग में स्थिर होते समय जिन आकाश प्रदेशों का आलम्बन लेकर स्थिर हो गए, बस फिर अनन्त काल तक वहीं स्थिर रहेंगे । स्थानान्तर नहीं होगा । अतः सिद्ध चलायमान नहीं, अचल हैं ।
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३) अरुह - रुह धातु उगने अर्थ में है । जैसे कटा हुआ वृक्ष पुनः उगता है । वैसे आत्मा पर लगे हुए कर्मों का क्षय हो जाने पर पुनः नए बंधते हैं। क्योंकि मूल कर्म भावकर्म सत्ता में रहते हैं अतः नए कर्मों का बंध पुनः होता है, उसे रुह कहते हैं । इसलिए संसारी जीव रुहात्मक रुहवाले होते है । जिनके कर्मों का उदय पुनः होता है और वे संसार में आते हैं । लेकिन सिद्धों को “अरुहन्ताणं” कहा है । पुनः जिनके कर्म उदित होते ही नहीं हैं, अतः वापिस कर्मग्रस्तता कर्मयुक्त सकर्मिता सिद्धों में पुनः नहीं आती है । इसलिए नवकार में जैसे " नमो अरिहंताणं” पाठ है उसी तरह “ नमो अरुहंताणं" पाठ भी बनता है ऐसा भगवती सूत्र में कहते हैं ।
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४) अनंत - चौथे विशेषण में अनन्त शब्द का प्रयोग किया गया है । यह अनन्त शब्द अनन्तचतुष्टयी का सूचक है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त वीर्य - यह अनन्तचतुष्टयी है । इस तरह ज्ञान - दर्शन - चारित्र - वीर्यादि अनन्त के स्वरूप में पूर्ण संपूर्ण है।
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५) अक्खय- अक्षय । सिद्धों की स्थिति अक्षय अर्थात् कभी भी क्षय न होनेवाली है । एक बार मोक्ष में जाकर सिद्ध बन जाने के पश्चात् उस सिद्धावस्था की स्थिति का क्षय
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कदापि होनेवाला ही नहीं है । अनन्त ही है ।
६) अव्वाबाह- अव्याबाध । संसारी जीवों का सुख ज्ञानादि व्याबाध स्वरूपवाला होता है । अर्थात् किसी के भी द्वारा बाधा- - पहुँचने पर वह सुख चला जाता
है । नष्ट हो जाता है । जबकि सिद्धों का सुख सदाकाल बाधा रहित होता है । अतः कितनी
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भी बाधाएँ आ जाय फिर भी उनके अनन्त सुख, अनन्त परमानन्द का अल्पांश भी क्षय नहीं होता है । इसी तरह ज्ञानादि भी व्याबाध रहित बाधा - पीडादिरहित अव्याबाध
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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