Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 507
________________ हो जाने पर जो अवस्था आत्मा की होती है वही सिद्धावस्था है । इसलिए 'कृत्स्न' शब्द से सभी कर्मों का क्षय अभिप्रेत रहता है। जबकि ... १-२ या ३-४ कर्मों का सर्वथा संपूर्ण समूल क्षय हो जाय तो उससे जन्य आत्मा के ज्ञानादि गुण क्षायिक की कक्षा के कहलाते हैं । क्षायिक का सीधा तात्पर्य यह है कि... उन गुणों पर कर्म का आवरण पुनः कभी नहीं आता है कदापि कर्मावरण के आगमन से वह गुणं पुनः आच्छादित नहीं होता / 1 है । क्योंकि ... पहले से ही कर्मों का समूल - संपूर्ण - सर्वथा क्षय करने की तैयारी से ही क्षपक श्रेणी का प्रारंभ किया है । अतः अब वे क्षय करके ही रहेंगे । इस क्षपक श्रेणी के क्रम में एक-एक गुणस्थान आगे-आगे चढते - चढते १२ वे गुणस्थान पर मोहनीय कर्म समूल - सर्वथा क्षय कर लेने के कारण वीतरागता का गुण क्षायिक भाव से प्रगट होता है । बस, यह वीतरागता कभी भी नष्ट होकर वापिस लुप्त नहीं होगी। ठीक इसी तरह ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म का भी सर्वथा समूल - संपूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर परिणामस्वरूप ज्ञान-दर्शन गुण क्षायिक भाव की कक्षा के प्रगट होते हैं । उस क्षायिक भाव की कक्षा के ज्ञान को केवलज्ञान और दर्शन को केवल दर्शन कहते हैं । इस तरह क्षायिक भाव के गुण ही पूर्ण - संपूर्ण कक्षा के प्रगट होते हैं, अन्य भावों के नहीं । अतः क्षायिक भाव की कक्षा के गुण पुनः कर्म से आवृत्त नहीं होते हैं । का, १२ कर्मों का क्षायिक भाव का क्षय ... ३ क्रम से होता है - १) पहले १ मोहनीय कर्म वे गुणस्थान पर... क्षय होता है । आठों कर्मों में से किसी अन्य कर्म का नहीं और मात्र मोहनीय कर्म का ही समूल संपूर्ण क्षय होता है। उसके पश्चात् १२ वे उपान्त्य और चरम समय में ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म इन ३ कर्मों का क्षय होता है । इस तरह १ + ३ = ४ घाती कर्मों का क्षय हो जाता है । और अन्त में ४ अघाती कर्म जो शेष बचे हैं उनका १४ वे गुणस्थान पर सर्वथा आत्यन्तिक क्षय हो जाता है । इस तरह १ + ३ + ४ = ८ आठों कर्मों का आत्यन्तिक क्षय, क्षायिक भाव का क्षय हो जाने पर ... मुक्ति होती है । इसीलिए कृत्स्नकर्मक्षय को मुक्ति कहा है । कृत्स्न + कर्मक्षय = मोक्ष | सव्व + पावप्पणासणो = मोक्ष । कृत्स्न शब्द का अर्थ संख्या में सर्व, गुणों में संपूर्ण और क्रियात्मकता में सर्वथा होता है । जैसा कि नमस्कार महामन्त्र के सातवें पद में कहा है कि- सव्व = सभी पाप कर्मों का प्रकृष्ट से नाश करना ही मोक्ष है । 'प्र' उपसर्गपूर्वक “नाश्” धातु " प्रनाशनं” अर्थ विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १४६३

Loading...

Page Navigation
1 ... 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534