Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 513
________________ करने के रूप में आचरण में उतारा जाय तो वही धर्म कहलाता है । अर्थात् मोक्षप्राप्ति हेतु कर्मक्षय करने के लिए जो भी कुछ किया जाय वह धर्म है। श्रेष्ठतम आत्मधर्म है । ऐसे धर्म का ही आचरण करना चाहिए, जिससे मुक्ति की प्राप्ति सुलभ हो सके । मोक्ष में क्या नहीं होता है ? - सिद्धाणं नत्थि देहो, न आउ कम्मं न पाण जोणीओ । साइ- अनंता तेसि ठिई जिणिंदागमे भणिआ ॥ ४८ ॥ 1 जीव विचार नामक प्रकरण ग्रन्थ में पू. शान्तिसूरि म. स्पष्ट लिखते हैं कि... सिद्ध भगवन्तों को न तो शरीर होता है, न ही आयुष्य होता है, न ही प्राण होते हैं और न ही उत्पत्ति योनि होती है । मोक्ष में उनकी स्थिति सादि - अनन्तकालीन होती है। ऐसा जिनेश्वर परमात्मा के आगम शास्त्र में बताया गया है। देह, आयु, प्राण, योनि और स्थिति ये पाँचो द्वार संसारी जीवों के लिए अनिवार्य रूप से होते हैं, अतः संसारी जीव से ठीक विपरीत स्थिति सिद्ध जीव की बताई हैं । जब शरीर आ जाता है तो उसके साथ-साथ आयुष्य, प्राण, योनि, स्थिति, काल आदि सब उसके आश्रित है, अतः अनिवार्य रूप से आ ही जाएंगे । क्योंकि शरीर है तो आयुष्यकर्म आएगा ही । यह शरीर कब तक रहेगा ? यह निर्णय आयुष्यकर्म करेगा । वह शरीर कितने प्राणों का बना हुआ है ? उसकी इन्द्रियाँ कितनी है ? मनादि है कि नहीं ? इत्यादि बातें प्राण द्वार से देखी जाती है । १० प्रकार के प्राण बताए गए हैं । अब योनि द्वार में उत्पत्ति योनि का विचार करना रहेगा कि यह शरीर किस योनि में से उत्पन्न हुआ है । या अन्य किस-किस की उत्पत्ति में कारण बनेगा । तथा अन्त स्थिति द्वार में यह देखना पडेगा कि आत्मा को शरीर धारी कितने समय तक रहना है ? कितने वर्षों तक रहना है ? इसे स्थिति कहते हैं । यह सारी विचारणा एक संसारी जीव के लिए अनिवार्य रहती है। जबकि सिद्ध जीव ठीक इससे विपरीत की कक्षा में है। उसके तो शरीर ही नहीं है । अतः वह अशरीरी है। सबसे पहले आधारभूत शरीर ही जब नहीं . उस पर आश्रित आयुष्य, प्राण, योनि और स्थिति आदि किसी का सवाल ही नहीं रहता है । सिद्धों को न तो किसी प्रकार का शरीर रहता है । जब शरीर नहीं है तो आयुष्य किस बात का ? किस गति का आयुष्य ? कितने वर्षों का ? फिर उनको इन्द्रियाँ कितनी होती है ? मनादि होते हैं कि नहीं ? फिर उनकी उत्पत्ति किससे हुई है ? कैसे हुई ? या उनसे भी और किसी की उत्पत्ति आदि होती है या नहीं ? उनकी स्थिति कितने वर्षों तक की है ? वे वहाँ कितने वर्षों तक रहेंगे ? आदि समस्त प्रकार की विचारणा सिद्धों के विषय में निरर्थक रहती है । विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १४६९

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