Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 509
________________ नहीं बना । जो मोक्ष में जाने की योग्यतावाला जीव है वह भव्य है, और जो कदापि मोक्ष में जाने की योग्यता ही नहीं रखता है, वह अभव्य जीव कहलाता है । अब प्रश्न यहाँ यह उठता है कि... जो मोक्ष में चले गए हैं, सिद्ध बन चुके हैं वे भव्य है या नहीं ? अब उनको भव्य कहना कि नहीं ? यदि कहें तो अब जाने के बाद पुनः कहाँ मोक्ष में जाना है कि जिसके कारण उसकी योग्यता मापी जाय ? तथा अभव्य बनते ही नहीं है । क्योंकि पारिणामिक भाव तीनों काल में अपरिवर्तनशील स्वभाववाला है । 1 या तो सिद्धों को भूतकालिक अपेक्षा से भव्य कह सकते हैं । परन्तु वर्तमानकालिकं अपेक्षा सेतो शास्त्रों में “सिद्धा नो भव्वा नो अभव्वा" = सिद्धात्मा न तो भव्य की कक्षा के हैं। और न ही अभव्य हैं। लेकिन भव्यत्वपना अनन्तकाल से पारिणामिक भाव से है ही । अतः वह नष्ट तो होता ही नहीं है । और न ही परिवर्तित होता है। फिर चला थोडीही जाएगा ? बरोबर बना ही रहेगा। लेकिन अब अर्थ वह नहीं रहेगा कि "मोक्ष में जाने की योग्यतावाला–भव्य” । इस लक्षण में भविष्यकाल की अपेक्षा है । अतः ऐसा कहा है । लेकिन मुक्त हो जाने के बाद अर्थ की कालवाची अपेक्षा बदलकर भूतकालीन हो जाएगी । इस तरह पारिणामिक भाव घटेगा । तथा जीवत्व, चेतनत्व, आत्मत्वादि तथा ज्ञानवत्व-दर्शनवत्वादि भी पारिणामिक कक्षा के भाव पडे ही हैं। वे नष्ट तो होते ही नहीं हैं । ज्ञानावरणीय कर्म से जो आवृत्त था वह अब पूर्ण की कक्षा में प्रगट है । अब कर्मावरण न रहने के कारण अनावृत्त - निरावरण अवस्था में पूर्ण - संपूर्ण कक्षा में प्रगट है। अतः सिद्ध को केवली सर्वज्ञ कहना ही पडता है । केवलदर्शनी सर्वदर्शी कहना ही पडता है । इसी तरह अनन्त दानी, अनन्त लाभी, अनन्त भोगी, अनन्त उपभोगी, अनन्त वीर्यवान् कहने ही पडते हैं । और बरोबर सबका व्यवहार भी उनमें होता है। ये गुण क्रियाशील सक्रिय हैं । अतः सिद्ध अशरीरी निष्क्रिय होते हुए भी उनकी आत्मा में समस्त अनन्त लोक- अलोक को जानने-देखने आदि क्रिया - प्रवृत्ति अन्दर ही अन्दर आत्मप्रदेशों में होती ही रहती है । यद्यपि करने रूप क्रिया उनमें नहीं है । लेकिन सहज होने रूप क्रिया उनमें जरूर है अतः वे देखने जाते नहीं हैं । परन्तु उनके ज्ञान में समस्त - - लोकालोक प्रतिबिम्बित होता ही रहता है । I ज्ञान - दर्शनादि सिद्ध में क्षायिक भाव से हैं । ज्ञानवत्व-दर्शनवत्व जीव का पारिणामिक भाव है । ५ प्रकार के भावों में ... औपशमिक भाव सिर्फ मोहनीय कर्म का ही होता है, जबकि क्षायिक भाव आठों कर्मों का होता है । क्षयोपशमभाव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय इन ४ कर्मों का होता है । औदयिक भाव आठों कर्मों विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १४६५

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