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हैं लेकिन... बारिश के दिनों में दिवाल पर जमी हुई फुग, (काई), या कल - परसों की बासी रोटी पर जो सफेद रंग की फुग फंगस जम जाती है, या अचार की बरणी में जो फंगस
जाती है उसमें से सूंई की नोक के अग्र भाग पर जितना अंश आए उतने से सूक्ष्मतम अंश में अनन्त जीव एक साथ रहते हैं। ऐसा शास्त्र वचन है । सर्वज्ञ प्रभु का कथित सिद्धान्त है | अतः सोचिए, संसार के कर्मवाले सकर्मी, स्थावर की कक्षा के अनेक गुने भारी कर्म बांधे हुए सूक्ष्म नामकर्मवाले एक सूक्ष्म या स्थूल शरीर धारण करके एक में अनन्त साथ में रह सकते हैं । जब सशरीरी सकर्मी संसार में अनन्त एक साथ रह सकते हैं तो फिर ... अशरीरी अकर्मी अनन्त एक साथ अल्प क्षेत्र में रह जाय इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं है ।
एक सिद्ध की अवगाहना जघन्य से १ हाथ ८ अंगुल होती है । और उत्कृष्ट से १ गाउ का छट्ठा भाग अर्थात् ३३३ धनुष्य ३२ अंगुल अर्थात् १३३३ हाथ और ऊपर ८ अंगुल जितनी ऊँची अवगाहना होती है । अर्थात् इतने विस्तार में उनके आत्मप्रदेश प्रसरे हुए रहते हैं । एक एक सिद्ध भी लोक के असंख्यातवे भाग में ही रहे हुए हैं। तथा सर्व सिद्धों के लिए विचार करें तो मात्र ४५ लाख योजन का ही विस्तार है। इस तरह ४५ लाख योजन लम्बे-चौडे तथा १/६ (एक षष्ठमांश) गाउ ऊँचे ऊर्ध्वप्रमाण जितने आकाश क्षेत्र में सिद्ध जीव रहते हैं । अतः सिद्ध हुए मुक्तात्मा सिद्ध क्षेत्र में इस लोक के अन्तिम भाग तथा अलोक की आदि के प्रारंभिक भाग में स्पर्श करके रहते हैं । अतः सिद्धों का निवासस्थान जो सिद्धशिला व्यवहारनय से कहा जरूर जाता है परन्तु वे सिद्धशिला नामक इषत्प्राग्भारा पृथ्वी का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हैं । परन्तु लोकान्त भाग का, और अलोक के आदि प्रारंभिक भाग का ही स्पर्श करते रहते हैं ।
इतने सिद्धों के रहने का स्थान समस्त लोक के असंख्यातवे भाग का ही है। यह जैन दर्शन में मोक्ष विषयक भौगोलिक स्थिति का स्वरूप बताया गया है ।
फुसणा अहिया कालो, इग सिद्ध पडुच्च साइओणंतो । पडिवाया भावाओ, सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥ ४८ ॥
स्पर्शनाद्वार
जैसे १ परमाणु १ आकाश प्रदेश में समा कर रहता है उसे १ आकाश प्रदेश की अवगाहना कहते हैं । तथा उसके चारों दिशाओं तथा उर्ध्व-अधो की दिशाओं के ऐसे
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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