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पाया, कर्मक्षयादि किया, गुणस्थानों के सोपानों पर चढा तभी वह क्रमशः वीतरागता केवलज्ञानादि पाकर एक दिन मोक्ष में गया। बस, जिस दिन वह मोक्ष में गया वह उसका मोक्ष में जाने का प्रथम दिन कहलाया । अतः आदि शुरुआत हुई । अतः सादि कहलाया। लेकिन मोक्ष में जाने के पश्चात् वह सिद्ध जीव अनन्त काल तक मुक्त के रूप में बना ही रहेगा । मोक्ष में से पुनः संसार में आएगा ही नहीं।
हिन्दु आदि धर्मों की मान्यता में अवतारवाद की प्रक्रिया मानी है । अतः वे पुनः संसार में आते हैं । अवतार लेते हैं । यह अवतरण किस कारण है, तो मात्र अपनी बनाई हुई सृष्टि के कारण है। ईश्वर को मानकर सृष्टि के कार्य में उसको ऐसा जोड दिया है कि .. दोनों पर्यायवाची बन गए हैं । बस, ईश्वर के कारण सृष्टि का अस्तित्व और सृष्टि के कारण ईश्वर का अस्तित्व । यदि सृष्टि न बनाए तो वह ईश्वर ही न कहलाए। ऐसी मान्यता वैदिकमतावलम्बी दर्शनों ने खडी कर दी। उसमें भी सृष्टि की तीनों अवस्था में उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय ईश्वर को ही कारण रूप से मान लिया है । अतः तीनों अवस्था के लिए ईश्वर को भी ३ रूप में, तीनों विभागों में विभक्तावस्थावाला मानना पडा। अतः ब्रह्मा, विष्णु 'महेश की अवस्थात्रिक की व्यवस्था की । ब्रह्मा सृष्टि की उत्पत्ति का कारण, विष्णु स्थिति
का कारण और महेश-शंकर को प्रलय (विनाश) करनेवाला कह दिया । बस, ईश्वर का कार्य सृष्टि और सृष्टि का सारा कारण ईश्वर । ऐसी व्यवस्था बनाकर छोड दी वैदिक मत ने । अतः यही ऐसी ही लोगों की मान्यता, श्रद्धा या मानस धारणा ही बन गई। कौन वास्तविकता का या सत्यासत्य का विचार भी करता है?
आर्हत दर्शन ने साफ स्पष्ट ही कर दिया है कि...आत्मा अनादि-अनन्त अस्तित्व धारक है । न तो कभी उसकी उत्पत्ति है और नहीं कभी ना या अन्त । पाँचों अस्तिकायात्मक पदार्थ ऐसे ही स्वरूपवाले अनादि-अनन्त हैं । अतः किसकी उत्पत्ति करना किसका नाश करना? कोई प्रषखडा ही नहीं होता है । जीवात्मा स्वयं कर्म उपार्जन करती है राग-द्वेषादि के कारण और स्वयं ही अपने उपार्जित कर्मों का फल (विपाक) अच्छा-बुरा सुखात्मक या दुःखात्मक भुगतती है। फिर कहाँ ईश्वर बीच में आया? कहाँ ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता पडी? संसार की इस कर्माधीन स्थिति के बीच में निरर्थक ईश्वर को घसीटकर लाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । जी हाँ,....जब जीव को इस विषचक्र में से छूटना हो, मुक्त होना हो तब तो सर्वज्ञ-वीतरागी ईश्वर के आलम्बन की आवश्यकता जरूर पडती ही है। लेकिन इस स्थिति में ईश्वर उपास्य तत्त्व है । न कि सृष्टिकारक कर्ता तत्त्व है । यहाँ ईश्वर के आलम्बन से, उनके उपदेश से कोई भी धर्म पाएगा, धर्म की उपासना
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आध्यात्मिक विकास यात्रा