Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 503
________________ से सब को उसी समय सुखी कर देता । दुःख का प्रमाण बढने ही नहीं देता। एक बात निश्चित है कि... दया-करुणा तो दुःखनिमित्तक है । यदि किसी के दुःख दर्द को देखें तो ही देखनेवाले के दिल में दया-करुणा आती है, अन्यथा नहीं। यदि सहज स्वाभाविक रूप से ईश्वर में सदा दया रहती ही हो तो सृष्टि में दुष्ट-दुर्जन का अस्तित्व संभव ही नहीं था । ईश्वर अपने संचालन काल में ही उन दुष्ट-दुर्जनों को पनपने-बढने ही नहीं देते ताकि ...ईश्वर के लिए अवतार लेने की नौबत ही नहीं आती । जब एक अवतार में ईश्वर विद्यमान ही थे संचालक के रूप में, तो फिर अन्य दूसरे अवतार को लेने की नौबत ही क्यों आई? इससे दूसरे ईश्वर के अवतार लेने की निरर्थकता सिद्ध होती है, या फिर पहले के अवतार की निष्क्रियता-अशक्ति सिद्ध होती है। __इस तरह यह सारी विसंगति आई कहाँ से? क्यों आई? इसका कोई विचार ही नहीं किया और मात्र ईश्वर के अवतार की बातें बैठा दी । एक तरफ ईश्वर के अवतार लेने का कारण तो निश्चित ही रखा, उस कारण का निवारण करने के लिए ईश्वर के अवतार की आवश्यकता, अनिवार्यता बताई और दूसरी तरफ अवतारों में भिन्न-भिन्न कक्षा बताई। आखिर ऐसा क्यों? जिन्होंने मात्र लीला ही की, जो मात्र लीला ही करने के लिए आए, उन्होंने उन हेतुओं कारणों का निवारण कहाँ किया? लीला करने मात्र से ईश्वर के अवतार लेने के हेतु में लीला करने के हेतु को स्थान ही नहीं दिया है । तो फिर ईश्वर का लीला हेतु अवतार लेना निरर्थक सिद्ध होगा। इस तरह लीला हेतु, दया करुणा से, अधर्म की निवृत्ति करने के हेतु से तथा दुर्जनों के नाशादि किसी भी हेतु से ईश्वर का अवतार लेना योग्य ही नहीं ठहरता है । अतः पुनः पुनः अवतार ग्रहण करने के इस अवतारवाद के सिद्धान्त को मानना ही उचित नहीं लगता है। इसलिए एक ही ईश्वर को मानकर बार-बार उसके अवतार को स्वीकारने की विसंगति को दूर करने के लिए सभी आत्माओं को सर्वतंत्र स्वतंत्र सर्वथा भिन्न-भिन्न फिर सादृश्यता-समानता मानकर ईश्वर की व्यवस्था करने से विसंगति दूर हो जाएगी। बस, एक ही आत्मा जो सर्व कर्म क्षय करके एक बार मोक्ष में चली जाती है वह किसी भी कारण से पुनः संसार में नहीं लौटती है । अब कोई कारण ही नहीं बचता है उनके लिए । अतः सिद्ध परमात्मा कारणातीत है । अकारणी है। दूसरी आत्मा भी उनकी अनुगामी बनकर मोक्ष में जाएगी। दूसरी तरफ संसार की सृष्टि को ईश्वराधीन न मानकर सिर्फ कृतकर्माधीन ही मान लें तो इस चरम सत्य के सामने कोई विसंगति नहीं आएगी। संसार में अनन्त जीव सृष्टि है । एक ही आत्मा मानने में बहुत विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४५९

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