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आज्ञा धर्म या इच्छा धर्म ? -
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संसार में अधिकांश जीव अपनी इच्छा - मर्जी के अनुरूप चलने को ही धर्म मान लेते हैं। वैसे संसार में इच्छा रहित कौन है ? शतप्रतिशत सभी जीव इच्छा वाले ही हैं । इच्छाएँ मन में पनपती है। आखिर इच्छाओं की उत्पत्ति के पीछे क्या कारण है ? यह रहस्य समझ में आ जाय तो बेडा पार हो जाए। जबकि स्पष्ट सरल है कि ... आत्मा के ८ कर्मों में मोहनीय कर्म है जो राग-द्वेष से उपार्जित किया हुआ है। इस प्रकार के मोहनीय कर्म के उदय से इच्छाएँ जगती पनपती ही रहती है । अनेक जन्मों का अनन्त गुना मोहनीय कर्म आत्मा पर बंधा हुआ है । संसार में अनन्त वस्तुएँ हैं । अतः जीव की इच्छाएँ भी अनन्त प्रकार की हैं । अब किस किस इच्छा को महत्व देगा ? कैसी कैसी इच्छा को प्राधान्यता देगा ? अतः अधिकांश जीव जो “इच्छाए धम्मो" कहेंगे तो कैसे चलेगा ? एक चोर कहेगा कि मेरी तो चोरी करने की इच्छा है । कामी कहेगा कि मेरी तो काम भोग सेवन करने की इच्छा है । धनवान की इच्छा अलग और गरीब- भिखारी को पूछा जाए तो वह कहेगा कि शेठ को ही मार डालने की मेरी इच्छा है। खूनी हत्यारा भी किसी का खून करने की इच्छा रखता है ।
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इस तरह यदि सबकी अपनी-अपनी इच्छा के अनुरूप धर्म रखा जाय, या कहा जाय तो सर्वथा अनुचित ही होगा। ऐसे धर्म में एकवाक्यता, एकरूपता तथा शाश्वततादि कुछ भी नहीं आएगी । और यह धर्म थोडा ही कहलाएगा ? यह तो कर्मपोषक – पापपोषक कहलाएगा। क्योंकि मोहनीय कर्म के उदय से इच्छाएँ जगी और उस कर्मजन्यभाव को यदि पुनः प्रकट करें, या वैसा आचरण करें तो वह धर्म का स्वरूप थोडे ही कहलाएगा ? दूसरी तरफ इच्छा करना आसान है लेकिन की हुई इच्छा को पूर्ण करना इतना आसान संभव नहीं है । किसी की इच्छा समग्र विश्व के राष्ट्रपति बनने की हो तो क्या यह पूर्ण हो सकती है ? क्या किसी की चक्रवर्ती बनने की इच्छा पूरी हो सकती है ? क्या इच्छा मात्र करके कोई स्वर्ग का मालिक इन्द्र बन सकता है ? इच्छा करने में क्या जाता है ? अच्छी खराब का भी विचार ही कहाँ करना है ? और मोहनीय कर्म द्वारा जन्य इच्छाओं से खराब इच्छाएँ ही अधिकतर ज्यादा से ज्यादा रहती है। शुभ कही जा सके ऐसी श्रेष्ठ कक्षा की इच्छाएँ तो बहुत असंभव जैसी लगती है । मानों कि कोई ऐसी इच्छा करे कि, संसार की समस्त स्त्रियों का मैं यथेच्छ उपभोग करूँ ? तो क्या यह पूर्ण हो सकती है ? और क्या यह पूर्ण करने योग्य भी है ? कदापि नहीं । अतः मोहनीय कर्म जन्य इच्छाएँ जो निरंतर मन को उछालती ही रहे और मन बिचारा पागल बनकर नाचता ही रहे तो यह कहाँ तक ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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