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से बिखरते-क्षय या नष्ट होते ही जाएंगे, उतने प्रमाण में आत्मा शुद्ध-शुद्धतर-शुद्धतम होती ही जाएगी। अतः सारा आधार निर्जरा पर है। वैसे भी आप जानते ही हैं कि..नीचे बर्नर में आग की मात्रा जितनी ज्यादा होगी उतनी जल्दी खिचडी तैयार होगी। यदि अग्नि का प्रमाण बिल्कुल कम होगा तो खिचडी घंटे भर में भी तैयार नहीं हो पाएगी। और यदि अग्नि का प्रमाण बहुत ज्यादा रहा तो १० मिनिट में पी खिचडी पक कर तैयार हो जाएगी। ठीक उसी तरह बारह ही प्रकार के तप से की जानेवाली निर्जरा धर्म की आचरणा जितनी ज्यादा प्रबल-बलवत्तर होगी उतना कर्मक्षय ज्यादा होगा और उस तरह कर्म क्षीण होने से आत्मा उतनी ज्यादा-ज्यादा शुद्ध-शुद्धतर होती जाएगी। क्रमशः गुणस्थानों पर उत्तरोत्तर आगे-आगे बढ़ती हुई आत्मा अनेक गुनी ज्यादा निर्जरा करते करते शुद्धि की दिशा में अग्रसर होती ही जाती है और शुद्ध-शुद्धतर-शुद्धतम-शुद्धतमातिशुद्ध बनते बनते सर्वथा शुद्ध बनने पर सिद्ध बन जाती है।
निर्जरा तो प्रतिदिन भी होती है। लेकिन वह आंशिक होती है । सहज स्वाभाविक निर्जरा का अर्थ है कि जो भी कर्म भूतकाल में उपार्जित किये हैं उनमें से जिन-जिन कर्म की अवधि पूर्ण हो चुकी है, काल परिपक्वता के कारण वे कर्म उदय में आएंगे। और उदयावलिका में आकर अपना फल दिखाकर आत्मा से अलग हो ही जाएंगे। लेकिन यह प्रक्रिया बहुत मन्द गति से चलती है। कर्म भी कई लम्बी काल अवधि के होते हैं। अतः
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आध्यात्मिक विकास यात्रा